अनादि
क्षण क्षण क्षरण हो रहे क्षण में
क्षणिक क्षण भर क्षितिज को देखो
अनगिनत अनादि अनंत कल्पना खोलो
कल्प कल्पित कल्पना के कलरव को जानो
जाने से पहले स्वयं को पहचानो
ईश पर रख विश्वास की आश
अन्दर की यात्रा तो करो
स्वयं के लिए स्वयं को जानो
मिट्टी के तन में सांसो को
जोड़ा जिसने उसको पहचानो
संक्षिप्त सही पर सार गर्भित हो
मन शान्त और विचार निर्मल हो
मिट्टी का तन कांठ पर जब जाएगा
देखना मन नहीं पचताएगा
स्वप्न जो क्षणिक अक्षि ने देखा
कुछ तो प्रयास कर लिया जाए
प्राण का अर्पण कर समर्पण
ध्यानमग्न हो जाने दो
सारी चिंता को चिन्तन में बदल कर
तो देखो नयन से अपने हृदय द्वार देखो
सुशील मिश्रा (क्षितिज राज)