*अनमना और छ्द्म जीवन *
*अनमना और छ्द्म जीवन *
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बाँध पर अवस्थित ये जीवन,
सपनों के प्रसून खिलानें।
विरह-मिलन के गीत गानें,
फूस की इन झोंपड़ियों में,
बारिशों से व्यथित है जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
घर -द्वार इनके कटे हैं,
कर्म पथ काँटें बिछे हैं।
हर तरफ बादल घने हैं।
उजड़ा उपवन बीता यौवन,
अनमना और छ्द्म जीवन।।
तिलमिलाते धूप में भी,
बाध्य है अपने कर्म से।
स्मृति में इनके बसे हैं,
गौरवित गुजरा जमाना।
पर भाग्य ने तो छला जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
कभी उफनते सरित जल से,
कभी लरजते तड़ित बल से।
कभी गरजते वारिद नभ से,
भीरू मन निष्प्राण इनका,
पल में होता त्राण इनका ।
सरफिरा संतप्त जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
सियासत के हर बिसात में,
इनकी तो बस हार होती।
झेलने को ये विवश है,
अपने जीवन की दुर्गति।
हो न पाया सुरम्य जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
हर समय बस याद आती,
अतीत के दुर्लभ क्षणों का।
होगा क्या पर अब हमेंशा,
नियति को ही कोसने से।
दुःसह और अनित्य जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
रेत के इस टीले पर ही,
नवजीवन का संचार होता।
उम्र भी ढलती, दिन गुजरता,
एक दिन प्राणांत होता ।
मनुज हेतु दुर्लभ जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
मशविरा मेरा इक ले लो,
रात्रि के नीरव प्रहर में।
टिमटिमाते जुगनुओं से,
देह की ज्योति तुम पा लो।
प्रकृति के सानिध्य में तुम,
प्रकृति से नियति चुरा लो।
कर दो छिन्न-भिन्न हर बंधन,
तब मिलेगी उन्मुक्त जीवन।
अनमना और छ्द्म जीवन।।
मौलिक एवं स्वरचित
© *मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
मोबाइल न. – 8757227201