अनघड़ व्यंग
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
अनगढ़ व्यंग
माला आन्टी का मलमल
गुपचुप कोई कुतर गया
अन्जाने सा दुख घर आँगन में
देखो देखो पसर गया ||
बिखरी एक उदासी मुख पे
छवि धूमिल सी करदी दी जिसने ||
मुझको बहुत अफ़सोस हुआ
माला आन्टी का मलमल
गुपचुप कोई कुतर गया
छाछ सूप का दही बनाया
दही बिलोयी हँडिया मा ||
कुतिया का एक प्यारा पिल्ला
सुबह सुबह खोल किबड़िया पी गया ||
बाह रि किस्मत खेल अजब सा
घर चौबारे पर खूब रचा
रेल चढी न पटरी पे तो
बस का चक्का निकल गया ||
इसने बोई उसने काटी
भैँस थी उसकी जिसकी लाठी
गलियारे में बंधे पशु को
फिर कोई कैसे, खोल ले गया ||
मारम पिट्टी नोचम नोची
अब के कर लेगी टोकम टोकी
ध्यान दिया ना सम्बंधो पर तो
मन का कोंना रीत गया ||
रात अंधेरी घुप्प हुई थी
बिजली भी तो सुस्त हुई थी
डर का आलम सभी ओर था
सांप छछूंदर झींगुर उल्लू
निशा चरों का सर्वत्र जोर था
उनसे तो निपटा भी जा सकता था
नर के भीतर छुपा भेड़िया कब झपटेगा
इसी वजह से चुपके चुपके घूर रहा
निशा चरों का सर्वत्र जोर था
माला आन्टी का मलमल
गुपचुप कोई कुतर गया
अन्जाने सा दुख घर आँगन में
देखो देखो पसर गया ||
बिखरी एक उदासी मुख पे
छवि धूमिल सी करदी दी जिसने ||