अनकहे शब्द बहुत कुछ कह कर जाते हैं।
अनकहे शब्द बहुत कुछ कह कर जाते हैं,
स्वयं के विचार हीं तो, सबसे ज्यादा सताते हैं।
अन्धकार के बादल, जब छत पर मंडराते हैं,
साये रिश्तों के हीं, सर्वप्रथम मुँह छिपाते हैं।
बारिश आंसुओं का भ्रमजाल बिछाते हैं,
और सत्य-असत्य के अंतर को हीं धुंधलाते हैं।
पहचाने रास्तों में हीं तो, हम अक्सर खो जाते हैं,
फिर अजनबी राहों में मंज़िलों से टकराते हैं।
बंद दरवाज़ों की आस में, इतना वक़्त गंवाते हैं,
कि खुले द्वार भी हमसे ठिठोली कर जाते हैं।
टूटी डोर को ना जोड़ने की कसमें खाते हैं,
फिर उन्हीं के रेशों को हर क्षण सहलाते हैं।
औरों को जानने की चाह, में इतना खो जाते हैं,
कि खुद से खुद की पहचान हीं नहीं करवा पाते हैं।
फिर एक दिन स्वयं को, टुकड़ों में बिखरा पाते हैं,
और बची उम्र उन टुकड़ों को समेटने में बिताते हैं।
बंद आँखों के सपने मन को इतना भा जाते हैं,
कि ज़िन्दगी सारी शिकवों में हीं बिता जाते हैं।