*अध्यक्ष जी की आत्मकथा (हास्य व्यंग्य)*
अध्यक्ष जी की आत्मकथा (हास्य व्यंग्य)
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बुढ़ापे में बीमारी केवल यह नहीं है कि आदमी बूढ़ा हो गया है । सबसे बड़ी बीमारी प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अध्यक्षता की लग जाती है । अक्सर सोचता हूॅं कि अध्यक्षता करना छोड़ दूॅं, चैन से घर में बैठूॅं ।
अब आजकल चला-फिरा भी नहीं जाता । घुटनों में दर्द रहता है। हर पॉंच मिनट के बाद टॉंगों की पोजीशन बदलनी पड़ती है। हाथ काम नहीं करते । ऑंखों से कम दिखता है । गर्दन में दर्द बराबर रहता है । कमर झटका खाती रहती है । दिमाग एक घंटा कहीं बैठो, तो सुन्न-जैसा हो जाता है ,लेकिन अध्यक्षता का आकर्षण ही ऐसा है कि नहीं छूट रहा ।
अध्यक्षता बुढ़ापे में ही मिलना शुरू होती है । जवानी में तो लोग सामान्य दर्शक और श्रोता बनकर कार्यक्रमों के मजे लूटते हैं और उछलते-कूदते घर वापस आ जाते हैं । अब जब अध्यक्षता मिलने का दौर शुरू हुआ है तो बुढ़ापे ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। अरे भाई ! जरा सोचो, जिस आयु में अध्यक्षता मिलती है उस आयु में शरीर भी तो अध्यक्षता के लायक होना चाहिए। लेकिन शरीर का बुरा हाल है ।
उधर अध्यक्षता के मामले में सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि ठीक समय पर कार्यक्रम में पहुॅंचना पड़ता है । कार्यक्रम भले ही एक घंटा लेट हो लेकिन अध्यक्ष समय से नहीं पहुॅंचे तो आयोजक उसकी बुराई शुरू कर देते हैं । चार बार मोबाइल पर तकादा शुरू हो जाता है । बंधुवर ! आप अभी तक नहीं आए ? कार्यक्रम का समय हो रहा है । कई बार तो मन करता है कि साफ-साफ कह दिया जाए कि तुम्हारे निर्धारित कार्यक्रम से हम एक घंटा लेट पहुंचेंगे, क्योंकि तुम्हारा कार्यक्रम ही कौन सा ठीक समय पर शुरू हो रहा है? हमसे दीप प्रज्वलित करा कर कार्यक्रम की शुरुआत कर लेते हो और फिर हमें मंच पर मुस्कुराते हुए बैठना पड़ता है ! पीठ दुख जाती है ।
लेकिन एक बात तो तय है कि जब मंच पर अध्यक्षीय आसन पर विराजमान होकर गले में फूलों के हार पड़ते हैं तो गला क्या, हृदय और शरीर के साथ-साथ आत्मा भी गद्गद हो जाती है । इसी स्वर्ग लोक के सुंदर आनंद के लिए तो हम अध्यक्षता स्वीकार करते हैं । वरना टुच्ची अध्यक्षता में रखा क्या है !
लेकिन सबसे ज्यादा दुखद बात अध्यक्षता में यह रहती है कि हमें तो अंत तक अध्यक्षीय आसन पर विराजमान होना पड़ता है, जबकि बाकी सब लोग जब चाहे चले जाने के लिए स्वतंत्र रहते हैं। हमारी ऑंखों के सामने लोग हॅंसते-मुस्कुराते हुए कार्यक्रम के बीच से उठकर चले जाते हैं और हम मन मसोसकर रह जाते हैं कि क्या करें ! अध्यक्ष हैं ! अंत तक बैठना ही पड़ेगा !
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा
रामपुर उत्तर प्रदेश
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