अधूरी चाहत
पूरे 20 सालों के बाद आज उसे देख रहा था। उसके चेहरे पर वही ताज़गी, वही मासूमियत अब भी बरकरार थी, जो आज से बीस साल पहले थी।
मैं वहीं स्टेशन पे खड़े- खड़े ही, पुरानी यादों में कब खो गया, पता ही नहीं चला।
क़रीब बीस साल पहले की बात थी।
मेरे घर के सामने वाले, खाली पड़े मकान में एक परिवार आकर रहने लगा था। परिवार में,माँ और दो बच्चे थे। मुझे तो पता भी नहीं चलता। वो तो अम्मा ने बातों ही बातों में जिक्र किया था। उस वक़्त मैंने कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं ली थी, उनके बारे में जानने में।
यूँ तो मेरे कमरे की खिड़की ज्यादतर लगी ही रहती थी। अम्मा जब भी रूम साफ करने आती थीं तो खोल दिया करती थीं। मैं रूम में आता तो फिर खिड़की लगा लेता। आप भी सोच रहे होंगे कि कितना अजीब इंसान है। कमरे में खिड़की इसी लिए दी जाती है कि सूरज की रौशनी, हवा अंदर आ सके। ऐसा नहीं था कि मैं दुनिया से कट कर अलग- थलग रहने वाला इंसान था। दरअसल मैं एक लेखक हूँ। और मैं अपने लेखन के वक़्त किसी भी तरह का शोर- शराबा पसंद नहीं करता था। वैसे भी लेखन में पूरी एकाग्रता बनाए रखने के लिए
तन्हाई की जरूरत होती है। और मेरा घर था मुख्य सड़क के किनारे। दिन- भर गाड़ियों की आवा- जाही बनी रहती थी। लेकिन उस दिन चाय का कप ले कर खिड़की के पास आ खड़ा हुआ। और खिड़की का पट खोल दिया। और वहीं पर खड़ा हो कर चाय पीने लगा। सामने वाले घर का मेन गेट मेरी खिड़की के सामने ही खुलता था।
देखता हूँ, एक दुबली- पतली, नाज़ुक सी हसीना बाहर निकल रही है; साथ में उसका छोटा भाई भी था। और वो कुछ बोल रहा था; जिसकी किसी बात पर खूब खिलखिला कर हंस रही थी। मैं उस की हँसी की सहर में क़ैद हो चुका था। ऐसा नहीं था कि वो कोई बला की हसीन थी।
लेकिन कुछ तो बात थी उसमें, जो उसे सबसे अलग बनाती थी।
उसकी आँखें ज्यादा खूबसूरत तो नहीं थी लेकिन उसकी आँखों में एक अलग सी चमक थी। चेहरे पर बहुत ही मासूमियत थी।
मैं कब उसकी सहर में क़ैद हुआ पता नहीं चला। वो जा चुकी थी, और मुझे पता ही नहीं चला। चाय भी कब की ठंडी हो चुकी थी।
एक शाम मैं बरामदे में बैठा, ‘परवीन शाकिर’ की किताब का
मताल’आ कर रहा था। एक वक़्त था, जब मैं ‘परवीन शाकिर, इसमत चुगतई, कुर्रतुल्- ऐन- हैदर’ की किताबों का दीवाना हुआ करता था। रोज कम से कम एक घंटा ज़रूर निकाला करता था, इन्हें पढ़ने के लिए।
देखता हूँ, वो लड़की बेधड़क, “सलमा चाची…सलमा चाची ..” करते हुए अंदर चली आ रही है। सलमा, मेरी अम्मी जान का नाम है। लगता है मेरी अम्मी से उसकी बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी। मुझे घर की कोई ख़बर ही नहीं रहती थी। तभी उसकी नज़र मुझ पर पड़ती है; वो ठिठक कर रुक जाती है।
“वो मुझे सलमा चाची से कुछ काम था”
“लेकिन अम्मी तो घर पर नहीं हैं” मैंने लगभग घूरते हुए जवाब दिया। वो मेरे इस तरह देखने से थोड़ी घबड़ा गयी थी।
“ठीक है, मैं फिर आ जाऊँगी।” कहते हुए वो जा चुकी थी।
मुझे अब अपनी हरक़त पे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी।
बाद में अम्मी से बातों ही बातों में पता चला; वो M.A.(Urdu litreture) की तालबा थी। मुझे ये जानकर, अंदुरुनी ख़ुशी महसूस हुई थी।
उस लड़की की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुका था।
उसे ले कर अपनी, आने वाली ज़िंदगी के सुहाने सपने बुनने लग गया था।
उसे मेरे जज़्बातों की भनक भी नहीं थी।
इसी बीच किसी काम से बाहर जाना पड़ा; सोचा आ कर के अम्मी से बात करूँगा। लेकिन मुझे क्या ख़बर थी की मैं अपनी ज़िंदगी की सबसे क़ीमती चीज़ खोने वालों हूँ; जिसे अभी पा भी नहीं सका हूँ।
क़रीब दस दिनों के बाद घर लौटा था। देखता हूँ सामने वाले घर में लोगों की काफ़ी चहल- पहल थी। शामियाने लगे हुए थे। मुझे अंजाने ख़दशे ने घेर लिया था। मैं मन में उठ रहे वस-वसों को दबाते हुए सीधे अम्मी के कमरे की तरफ़ गया था। देखा अम्मी अपने कमरे में नहीं थीं। मैं बेचैनी से टहलने लगा।
कुछ देर के बाद अम्मी आती हैं। मैंने सलाम किया। और सलाम का जवाब देते ही उन्होंने बताना शुरू कर दिया।
“सामने वाले घर में, जो बच्ची रहती थी। बड़ी नसीबों वाली है; बड़ा ही नेक और शरीफ़ लड़का मिला है उसे। अच्छा पढ़ा- लिखा, ख़ुश- शक़्ल, और अच्छा- खासा कमाने वाला है। सबसे बड़ी बात बिना दहेज़ के ही शादी किया है। बड़े अच्छे और शरीफ़ लोग हैं।”
अम्मी बोलती जा रही थीं; मैं कुछ सुन नहीं पा रहा था। या सुनना नहीं चाहता था। मेरी दुनिया बसने से पहले ही उजर चुकी थी। मेरा चेहरा धुँआ- धुँआ हो रहा था। मैं पसीने से भींग चुका था।
अम्मी बात ख़्तम कर के अपने कमरे में जा चुकी थी।
उन्हें पता भी न हो सका था कि उनके जिगर के टुकड़े की दुनिया लुट चुकी थी। मैं वहीं तन्हा खड़ा रह गया था; उसे खोने का मातम करने जिसे कभी पाया ही नहीं था।
उसके बाद मैंने वो शहर ही छोड़ दिया था। अम्मी को भी अपने साथ ले कर आ गया था। अम्मी ने बारहा पूछा था; मैंने जॉब का बहाना बना कर उन्हें टाल दिया था।
उसके बाद आज पूरे बीस सालों के बाद, अपने इस शहर में आया था। अपने एक दोस्त के बहुत इसरार करने पर, उसकी बेटी की शादी में।
तभी एक बच्चे की आवाज़ ने, मुझे ख़्यालों से बाहर निकाला।
वो बच्चा कुछ खाने के लिए पैसे माँग रहा था। मैं उसे पैसा निकालकर देते हुए, उसे इधर- उधर ढूँढ रहा था। लेकिन वो नज़र नहीं आई। नज़र आती भी कैसे?.. वो तो कब का जा चुकी थी।
फ़ज़ा Saaz