अधूरा या मुकम्मल
तेरे आने के बाद यूँ भी लगा है मुझको
कुछ अधूरी चीज़ें कितनी मुकम्मल होती हैं..
तुम जिसे बेख़याली में कहते थे
मैं सुनती रही ख़्यालों में जिसे
वो एक अधूरी सी बात..
जो कही-सुनी थी हमने
उस एक अधूरी सी रात..
उन अनजान राहों में
चंद क़दमों में सिमटा वो अधूरा सा साथ
जिसने रास्तों को मंज़िलों से ख़ूबसूरत बना दिया…
बेवजह की भटकन को मुकम्मल एक सफर बना दिया…
तेरे-मेरे दरमियाँ बात-बात पर होती थी
कभी दर्द कभी ख़ुशी जो देती थी
हर बार की वो अधूरी सी तकरार..
वो जिसे कहकर मुकरना आसान होता
सो अधूरा ही रखा तुमने वो इज़हार..
कितना सुकून दे जाती थी मुझको
वो अधूरी सी बैचैनी, वो अधूरा सा क़रार..
जानती हूँ कि तुम अब नहीं आओगे
अपने किये वो अधूरे वादे नहीं दोहराओगे
तुम होकर भी नहीं होगे दुनिया मे मेरी
ताउम्र रहेगा इन निगाहों में फिर भी
तेरा ये अधूरा सा इंतजार …
क्या कभी महसूस करते हो तुम भी
ये अधूरा रिश्ता.. जिसने हर अहसास को मायने दिये
ये अधूरी मुहब्बत.. जिसमें हम उम्र अपनी सारी जिये
तेरे आने के बाद यूँ भी लगा है मुझको
कुछ अधूरी चीज़े कितनी मुकम्मल होती हैं….
सुरेखा कादियान ‘सृजना’