अधीर् सागर
लहरों ने किया श्रृंगार
सागर मचलने लगा
लहरों के दिल में क्या है
देख सागर कहने लगा
ऊँची इतनी उठती
कब मिलोगी आ मुझमें
जवानी उफन उफन गिर रही
कब करोगी आत्मसात मुझे
किनारों से टकरा -टकरा कर
हृदयतल मेरा तोड़ डाला
आशिकों की लाइन में ले
जा मुझे खड़ा कर डाला
प्रिये रोज क्षीण करती हो मुझे
कैसा यह तेरा फसाना है
तोड़ मेरे तट को नित्य अब
कितना और तुम्हें सताना है
रोज आ समीप मेरे तुम
दूर इतनी चली जाती हो
एक-टक निहारता रहता
आचमन ही मिल पाता है
शिकायत नहीं करता
सौंगंध खा कहता हूँ प्रिये
उठ कर समाना मुझमें तेरा
आह्लाद अनुपम दे जाता है
तेरे आ मिलने से ही प्रिये
जीवन यह सार्थक लगता है
तेरे बिन जीवन का क्या मोल
हर पल पहाड़ सां लगता है
डॉ मधु त्रिवेदी