अधिकार तुम्हें था….
अधिकार तुम्हें था रुठ जाने का
एक-बार नहीं सौ बार जाने का
इस कदर दूर तो न होते तुम मुझसे
साँसे भी इन्तजार करें तुम्हारे आने का..
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बदल दिये रास्ते तुमने अपने
अफसोस रहा मिट गये सारे सपने
अधिकार था तुम्हें फैसला लेने का
पल भर में लगे आज कुछ और जपने!
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प्रेम तुम्हारा बाँधे था मुझको
उफान ना आ जाये सोचना था तुझको
अधिकार था तुम्हें एक बार तो कुछ कहते
सब कुछ था तुम्हारा खुद को वार देती तुझको!
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निशान शेष रह गये पदचिन्हों के
कुछ धुँधले कुछ चटकीले कदमों के
मिटाते जाना था छाप इनकी भी
चाहकर न जला पाते दीये यादों के !
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आलीशान बंगला वीरान हो गया
दिल के कोनों में दर्ज नाम हो गया
बसा देते नयी बस्ती जाने से पहले
विरह में मेरे घर का बुरा हाल हो गया!
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पतझड़ की तरह झड़ना नहीं था
बुजदिल की तरह डरना नहीं था
समझदारी से रोपते रिश्तों की शाख
ऐसे बारिश में छिपना अच्छा नहीं था!
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शालिनी साहू
ऊँचाहार,रायबरेली(उ0प्र0)