अधजले दीये की लौ से.…
अधजले दीये की लौ से.…
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अधजले दीये की लौ से,
जल उठा पवन,
और आया..एक झौंका बन ।
रच दिया चक्रव्यूह,
कहने लगा मौन बन,
…. हट जा पथ से !
पर नही,….
नहीं हटूंगा मैं इस पथ से,
मैं रक्षक हूँ इस लौ का,
इसे जलाया है मैंने किसी की याद में प्रेमाकुल होकर,
और जी रहा हूँ.. इसी के सहारे, इस तम-गर्त में ।
एकाएक ……..
न जाने कौन सा ख़याल उसका,
एक बूँद बन टपक पडा उस लौ पर,
मेरी ही आँख से,
और…….
दीया वीरान हो चला ।
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** हरीश**चन्द्र**लोहुमी**
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