अथाह सागर -मां
मां को समर्पित ये मेरा समर्पण
कितनों का जाने मां तू ही तो दर्पण
अविरल प्रवाह उल्लसित जीवनधारा
गह्वर सी तुम छिपा राज सारा
चलता रहा द्वंद्व संघर्ष न हारा
प्रेमाग्नि का जिसमें हवन तूने डाला
बरगद की छांव जतन कर संभाला
जडों की मिठास से जकड़ रिश्ता सारा
पनपे हजारों आंचल में खिलकर
तुम ही तो हो रचनाओं का घर
देती उबार भंवर से निकाल गंगा की धार
विकट की घड़ी जब भी पड़ी बनी खेवनहार
गोद में है जिसके सुधारस का वास
मधुर स्पर्श और शीतल अहसास
धरा जैसी देती सबको जीने की आस
अपरिमित शक्ति नियंत्रित विचार
पवित्रता निश्छलता का सहस्त्रद्वार
अवताररूपा पूजनीया तुम ही आशीर्वाद
शब्दों से परे नि:शब्द श्वास है मां
महेश में सिमटी अनादि अनंत का वास है मां ।
स्वरचित
डाॅ कल्पना
नोएडा