अज़ीम हिन्दुस्तान …
अज़ीम हिन्दोस्ताँ !
बता कैसे कहूँ आख़िर – ‘है हिन्दुस्ताँ अज़ीम’,
यहाँ बे-ईमान लोगों की क़तारें हैं बहुत ।
सभी की इक़्तिज़ा है मुल्क में हमको मिले हक़,
मग़र बे-फर्ज़ रहना चाहते हैं ।
हमें नाचीज़ लगता मुल्क का आज़ाद होना,
शाइ’द ग़ुलामी फ़िर से सहना चाहते हैं !
नज़र को खोलकर देखोगे जब तुम इक दफ़ा,
तो जानोगे कि गद्दारी के नज़ारे हैं बहुत ।
बता कैसे कहूँ आख़िर – ‘है हिन्दुस्ताँ अज़ीम’,
यहाँ बे-ईमान लोगों की क़तारें हैं बहुत ।
यहाँ है मुल्क आख़िर में, हैं पहले ज़ात-मज़हब,
वतन से इश्क़, ज़्यादातर, नुमाइश ।
फ़िगारों से नहीं हमको है मतलब, रहे ख़ुद का–
मकाँ, इतनी सी ख़्वाहिश ।
नहीं इस्लाह अब तक किया हमने,
कड़ी ज़ंजीर के भी दिन गुज़ारे हैं बहुत।
बता कैसे कहूँ आख़िर – ‘है हिन्दुस्ताँ अज़ीम’,
यहाँ बे-ईमान लोगों की क़तारें हैं बहुत ।
यहाँ के हुक्मराँ मौकापरस्ती के शहंशाह,
औ’ शाइ’र लूटते बस वाहवाही ।
बिखरना, फ़िर से, मुस्तक़बिल है अपना,
अलैहिदगी-पसंद देते गवाही ।
हक़ीक़त मा’लूम है? बहार-ए-गुलशन की जगह,
ख़िजाँ की सन्नाटे-भरी चीखें पुकारें हैं बहुत,
बता कैसे कहूँ आख़िर – ‘है हिन्दुस्ताँ अज़ीम’,
यहाँ बे-ईमान लोगों की क़तारें हैं बहुत ।
— सूर्या