अजनबी
अपनों के शहर में हम अजनबी से हो गए हैं ,
बावफ़ा रहकर भी मोरिद- ए – इल्ज़ाम हो गए हैं ,
यादों के झरोखों से झाँकते है कुछ
जाने- पहचाने चेहरे ,
एहसास -ए- कशिश ग़ुम है, लगते हैं अब
अजनबी से वो चेहरे ,
कुछ सोच कर मेरे बढ़ते कदम ठिठकर
थम से जाते हैं ,
क्या ये वो ही रास्ते हैं ? जो मेरे अपनो
तक ले जाते हैं ,
इसी कश्मकश मे, मैं इस शहर की गलियों में
खो सा गया हूं ,
अपनों का पता पूछते-पूछते अजनबी सा
होकर रह गया हूं।