अगर मैं झूठ बोलूँ
अगर मैं झूठ बोलूँ तो मेरा ईमान जाता है ।
मगर सच पर कहाँ मेरे किसी का ध्यान जाता है ।।
बदलते दौर में रिश्ते रहें महफ़ूज़ भी कैसे ?
कभी तक़्सीम आँगन तो कभी दालान जाता है ।। ( = विभाजित )
निगाहों में उतरने का सलीक़ा है अजब उसका ।
वो चेहरा देख कर सारी हक़ीक़त जान जाता है ।।
यही इक बात ही तेरी जुदा रहती है औरों से ।
बमुश्किल मानता है पर तू मेरी मान जाता है ।।
उसे ख़ुशबू परखने का हुनर अब तक नहीं आया ।
सुना था वो तो साये से शजर पहचान जाता है ।।
न क्यूँ बर्दाश्त कर लें हम परेशानी फ़क़त कुछ दिन ।
बुलंदी पर अगर अपना ये हिन्दुस्तान जाता है ।।
बँधी है आँख पर पट्टी तो सच आये नज़र कैसे ?
क़यामत पर कहाँ उसका कभी संज्ञान जाता है ।।
NAZAR DWIVEDI
8989502293