अगर कुछ हो गिला तब तो बताऊं मैं,
ग़ज़ल
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अगर कुछ हो गिला तब तो बताऊं मैं,
मिरे दिल की भला क्यूँकर छुपाऊं मैं !
उसे तन-मन से माना है ख़ुदा अपना,
क्यों सब कुछ न उस पे ही लुटाऊं मैं !
मेरा हमदम, मेरा साया, रहा बनकर,
भला क्यूँ ना उसे जी भर सताऊं मैं !
किया उस के हवाले खुद को है मैंने,
तभी तो अब ज़ियादा हक जताऊं मैं !
अगर की है मुहब्बत मैंने उस से फिर,
क्यों ना हक से नखरे उसे दिखाऊं मैं !!
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!
डी के निवातिया