अक्स मेरा
कहते हैं वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है,
उड़ते पंक्षी को शजर भी बसर देता है !
अपने कर्मों का हिसाब हर इंसान ,
कोई इधर देता है ,कोई उधर देता है !
बिखरा अक्स मेरा बिखरे मंज़र में कहीं,
तलाशता हूँ खुद को गहरे समंदर में कहीं।
पारछाइयाँ धुंधली सी पडी है यादों की ,
ढूंढता हु ‘असीमित ‘इस बबंडर में कहीं।
हूँ अकेला राह में तो क्या चल नहीं पाऊँगा ,
बिना रहमो करम के क्या पल नहीं पाऊँगा !
ख़्वाब बुनता हूँ असीमित हौसलों के अब भी ,
पिघलता लोहा हूँ क्या ढल नहीं पाऊँगा !
रचनाकार -डॉ मुकेश’असीमित’