अंधेरे में
कब ही मर चुकी आत्मा की लज्जा
सुख गया ऑंखों में पानी
उम्र जब उपर चढ़ती गई
तब कहाॅं रही कोठे की रानी
बाजार में नई लड़कियों के आने से
पुरानी का कोई मोल भाव कहाॅं
बढ़ती उम्र के कारण तो अब
उसमें रहा किसी का चाव कहाॅं
किसने कब बीज है डाला
कहलाएंगे हमेशा ये दोगले
किसके बच्चे को अब तक है पाला
पूरी जिंदगी ही भ्रम को ये भोग ले
समान गति से समय का चक्र
इस गति को फिर से दुहराएगा
जहाॅं अभी ये खड़ी है वहीं उसी जगह
किसी दिन इनके बच्चों को लोग पाएगा
इनकी बच्चियाॅं भी होश संभालते ही
लोगों के कामुक नज़रों को झेलेगी
बचपन का अहसास भी न होगा
यौन संबंधों का खुला खेल खेलेगी
एक एक दिन तो अब इनका
एक एक बरस के समान होगा
किसी और के हाथ में तब
इसकी जिंदगी का कमान होगा
किस जनम का किया गया ये
किस ढंग का अनोखा पाप है
उसकी पूरी जिंदगी पर ही
नहीं मिटने वाला कलंक का छाप है
कैसे काटेगी अब अकेली
जिंदगी का लम्बा सफर
समय का जब तक जलवा है
हर दिन मिलेगा नया हमसफ़र
पर जिंदगी के शाम होते ही
सब कुछ अंधेरों में खो जाएगा
नई कहानी को आगे बढ़ा कर
इतिहास एक बार फिर सो जाएगा