अंधेरे उजाले की दास्तां
अंधेरे उजाले की दास्तां
अंधेरे उजाले की दास्तां
बयां न हो पाए किसी की जुबां
रात का मंज़र था इस कदर सज़ा
गिनते गिनते हो गई सुबह ।
बंद आँखों में नींद गुम हुई कहाँ
सन्नाटा चारों ओर फैला इस तरह
न सोते बन सका न जागते हो सका
ख्यालात के शिकंजे में मन जो था बंधा ।
ये अक्ल का असर था जो दिल खुद से दूर हुआ
बात लब पे आने से पहले ही हो गई जुदा
हसरत मन में ही रखने की थी अजब अदा
चाह कर भी न कह पाए अपनी ये दास्ताँ ।