अंधेरा सियासत का डराता है बहुत
दर्द सीने में तेरा मुझको सताता बहुत है!
ख़ुद तड़पता है मुझको तड़पाता बहुत है!
कह हवाओं से चरागों ने खुदकुशी की है,
अंधेरा सियासत का अब डराता बहुत है!
टूट कर कभी जिसको बहुत चाहा था मैंने,
नज़र से बेवफ़ा हुआ दूर वो जाता बहुत है!
इश्क़ का यही अक्सर अंजाम हुआ साक़ी,
ज़िंदा रक्खे ये मुख्तसर मार जाता बहुत है!
तमाम रात मैं उसके ख़्वाबगाह में रहा ,
आँख जो खुली हर ख़्वाब सताता बहुत है!!
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार-824236