अंतिम पत्र (कहानी)
अंतिम पत्र (कहानी)
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… अब कुछ ही आखिरी साँसें बची हैं। कोरोना के इलाज के लिए आइसोलेशन वार्ड में कई दिन से भर्ती हूँ।अब साँस लेने में भी बेहद तकलीफ हो रही है। पूरा शरीर थकान से भरा हुआ लगता है। जैसे शरीर में कोई जान ही नहीं रह गई है। नाक का बहना, ठंड लगना इन सब से शुरुआत हुई थी और अब हालत आखिरी दौर में पहुँच चुकी है। हो सकता है, आजकल में ही मुझे वेंटिलेटर पर जाना पड़े और फिर उसके बाद शायद मैं कभी ठीक न हो पाऊँ।
दरअसल गलती मेरी ही है । मैंने कभी भी कोरोना को गंभीरता से नहीं लिया । जरा याद करो, प्रधानमंत्री जी ने 21 दिन का लॉकडाउन घोषित किया था और तब मैंने यही कहा था कि यह सब बेकार की बातें हैं। हम लोगों को कोरोना – वोरोना कुछ नहीं होगा । हम सब गली- मोहल्ले में आपस में मिलते जुलते रहे । यहाँ तक कि पुलिस आती थी । लाठियाँ फटकारती थी और हम पुलिस को देख कर घरों में छुप जाते थे। पुलिस डाँट कर वापस चली जाती थी और हम फिर अपने घरों से बाहर निकल कर खेलकूद ,मौज मस्ती तथा सामूहिक बातचीत में व्यस्त हो जाते थे।
सचमुच पुलिस को नहीं बल्कि अपने आप को धोखा दे रहे थे । मेरी उम्र 60 साल से ऊपर थी । मुझे तो यह समझना चाहिए था कि कोरोना वायरस का खतरा सबसे ज्यादा मुझ पर है । बच्चों पर है , युवाओं पर भी है ।
मुझे सब को समझाना चाहिए था। न समझें तो डाँटना भी चाहिए था। पूरे मोहल्ले की नाराजगी मोल लेने के बाद भी मुझे सोशल डिस्टेंसिंग यानि कम से कम एक मीटर की दूरी बनाए रखनी चाहिए थी। लेकिन उसकी भी जरूरत ही क्या थी ? अपने घरों में कुंडी बंद करके हमें कैद कर लेना चाहिए था , जो हमने नहीं किया ।सबसे मिलते रहे । बाजारों में जब मन चाहा चले गए । बिना किसी काम के कुछ खरीदारी के नाम पर । बल्कि हमने सैर-सपाटा चालू रखा ।
पता नहीं कोरोना के किस बीमार को मैंने छू दिया कि वह बीमारी मुझे लग गई। यह भी हो सकता है कि मैंने सीधे-सीधे उस बीमार को न छुआ हो। बल्कि उस बीमार ने जिन चीजों को छुआ हो, मैंने उन चीजों को छुआ हो और फिर वह बीमारी मुझ तक आ गई हो ।
कारण कुछ भी हो ,दोष तो मेरा ही है । मैं घर से निकला ही क्यों ?यह लक्ष्मण रेखा थी जो मुझे लाँघनी नहीं चाहिए थी ,और जिसका दुष्परिणाम आज मैं जीवन और मृत्यु के बीच झूलता हुआ महसूस कर रहा हूँ। यह कितनी भयावह मृत्यु रहेगी ! यह एक ऐसी बीमारी से होगी , जब आखिरी समय मेरे पास कोई नहीं होगा । मैं किसी के कंधे पर सिर रखकर अपने दर्द को साझा भी तो नहीं कर सकता ! किसी के गले से लिपट कर रो भी तो नहीं सकता ! आखिरी सफर में आखिरी साँसों को किसी के साथ बाँट भी तो नहीं सकता ! यह अकेलापन मुझे और भी खाए जा रहा है ।
न कोई मेरे साथ है और न शायद अंतिम संस्कार में भी कोई साथी हो पाएगा । मैं चाहता भी नहीं कि किसी को अब मेरे कारण कोई तकलीफ उठाना पड़े । मैंने वैसे ही समाज के साथ गद्दारी की है । जी हाँ ! समाज के साथ गद्दारी ! जब मुझे घर पर रहना था ,तो मैं बाहर क्यों निकला ? यह असामाजिकता नहीं तो क्या है ? यह समाज को खतरे में डालने वाली कार्यवाही नहीं तो और क्या कही जाएगी ? जानबूझकर चीजों को गंभीरता में न लेना , उनका मजाक बनाना और यह सोच लेना कि बीमारी हम लोगों को नहीं लगेगी ,यह सबसे बड़ी गलतफहमी थी जिसको फैलाने में मैं शामिल रहा ।
आज मैं अपने परिवार और पूरे समाज से हाथ जोड़कर माफी माँगता हूँ। यद्यपि मेरा अपराध माफी देने लायक तो नहीं है , लेकिन फिर भी एक बदनसीब को हो सके तो माफ कर देना ।
निवेदक
एक बदनसीब
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(27 मार्च 2020 को फेसबुक पर प्रकाशित कहानी)
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451