अंतस का उत्पीड़न
‘अंतस का उत्पीड़न’
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मेरे उत्पीड़न की ज्वाला, धधक उठी गहराएगी,
अंतस के गहरे जख़्मों को, गाकर तुम्हें सुनाएगी।
दर्द भरा है संघर्षों का, सुख-दुख जीवन में पाए,
धूप-छाँव के खेल निराले, रास नहीं मुझको आए।
अपमानित रंगों की सूरत, दिखती मेरे भावों में,
अभिलाषा का ज़िक्र करूँ क्या, मिटती रही अभावों में।
कब आया मधुमास न जाना, कुंठित कथा बताएगी,
अंतस के गहरे जख़्मों को, गाकर तुम्हें सुनाएगी।
विरह वेदना पावस ऋतु की, सेज बिछौना शूलों का,
छली गयी मैं अपनेपन से, मर्म न जाना फूलों का।
अमरलता को कुचल पाँव से, छीना माली ने जीवन,
अस्तित्वहीन लतिका का दुख, समझ न पाया ये उपवन।
शृंगार छिना जिस ललना का, लाली उसे जलाएगी,
अंतस के गहरे जख़्मों को गाकर तुम्हें सुनाएगी।
सूख गए हैं अश्क नयन के, निष्ठुर पीड़ा झुलसाती।
क्षीण काय में प्राण शेष हैं, बुझती दीपक की बाती।
आस अधूरी लिए मिलन की, कोस भाग्य को रह जाऊँ?
ओढ़ ओढ़नी छल की सिर पर, कैसे खुद को बहलाऊँ?
चिर पतझड़ जीवन में आया, कोकिल कुहुक न पाएगी,
अंतस के गहरे जख़्मों को, गाकर तुम्हें सुनाएगी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)