अंतर में कितनी पीड़ाएं
अंतर में कितनी पीड़ाएं
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
अकथ पीर की ज्वाला उर में
कैसे शब्दों में भर लाएं
कितने-कितने स्वप्न संवारे
कितने उर में गीत सजाए
सुनने वाला मिला न कोई
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
प्रीत हमारी निर्मल निश्छल
निर्झर सी बहती थी कल-कल
याद तुम्हारी रहती थी बस
हृदय तल में हर क्षण प्रति पल
हिय में गहरे बसे हुए जो
उन सबको कैसे बिसराएं
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
कुछ थी तुम्हारी भी मर्यादा
कुछ थी अपनी भी सीमाएं
हुआ न तुमसे सीमा लंघन
सहज प्रेम था , टूटा बंधन
प्रेम पत्र सब धरे रह गए
बदल गई सब परिभाषाएं
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
प्रीत भरी वो पाती लिखना
अक्षर अक्षर मुखड़ा दिखना
बार बार वो पढ़ना पाती
प्रेम अगन जलती दिन राती
वे दिन वे पल कैसे आएं
अंतर की पीड़ा को भूलें
अधरों में फिर मुस्काएं
किसको अपनी व्यथा सुनाएं
अशोक सोनी
भिलाई ।