अंतर्व्यथा
बैठा हूं शांत, सामने मेरे समंदर है
उमड़ता है घुमड़ता है
या शायद
उन्मादों के दरिया में उठता शोर अंदर है
कह नहीं पाता कभी क्यूं
जज्बात ऊंचे या समंदर की लहरें
भावों में अभावों की अधिकता है
जो
कभी बैठूं तो सोचूं मैं दो पहरों तक,
सार्थकता में उम्मीदें पड़ी हैं निरर्थक
इक शोर अंदर है जो बाहर से न दिखता है
घुटन होती है दिल में टीस बनकर
या शायद सीने में अभावों का समंदर है
शून्यता है बस रही हर ओर जीवन में
इक छोर ढूंढू पर
समंदर ही समंदर शेष अंदर है
उम्मीदों के गौरव की इक लौ भयंकर है
पर न जाने क्यूं इक आह अंदर है
इक आह अंदर है!
8-May-2020, 6:59pm