अंततः कब तक ?
अंततः कब तक ?
प्रभुकृपा से प्राप्त मानव- तन
दुर्लभता को भी जानकर,
क्यों मोह – ग्रसित हुआ अधीर-मन
जग-नश्वरता को भी देखकर ।
स्थूलता के चरम पर
पहुँचा तो है प्राणि-मन,
सूक्ष्मता के धरातल पर
कब पहुँचेगा विद्रोही मन ।
क्षण-क्षण व्यतीत हो रहा
गतिशील समय – चक्र,
पल-पल अबाध दोहन से
प्रकृति-दृष्टि हो रही वक्र ।
सृष्टि के कण-कण में
प्रभु तो हैं विद्यमान,
माया-ग्रसित मानव-मन को
अंततः कब तक होगा अभिज्ञान ।
– डॉ० उपासना पाण्डेय