अंडे दिए हैं शायद दड़बों मे बटेरों ने
दायरा समेट लिया चुपके से सवेरों ने
कदम रख दिया हैं लगता है अंधेरों ने
हमारे जाल मे हलचल काहे को होगी
दरिया खंगाल लिया कब का मछेरों ने
सांप ही सांप हैं आंगन मे चारो तरफ
अंडे दिये हैं शायद दड़बों मे बटेरों ने
ये लाशें इस बात की दस्तीक करती हैं
खामोशी से पकड़ी थी आग बसेरों ने
कैसे सुनते वो चीख पुकार ऐ “आलम”
कानों मे उंगलियाँ दे रखी थीं बहरों ने
मारूफ आलम