अंगूठा..
दोस्त बिछड़ गए थे
मन में कुछ सवाल थे
झिझक और डर भी
ये वही दोस्त थे
जो हमसे ज़्यादा हमे जानते थे
हमारे दिल से लेकर ज़हन तक
जिनको हमारे नफ़्स नफ़्स
का अंदाज़ा था
आज शक के घेरे में थे
क्योंकि अब दोस्त नहीं
हालात बदल गए थे
वो मुट्ठी भर लोग
जो मोहताज थे
हमारे एक अदना से
अंगूठे के निशान का
वही अंगूठा जिसे हम डेढ़ा कर
मज़ाक बनाया करते थे
मुंह और उंगली टेढ़ी कर
सबको चिढ़ाया करते थे
जी हां ठेंगा वाला
वही अंगूठा
आज उसी अंगूठे के एक निशान ने
हम सब की आज़ादी, यकजहती पर डेरा डाल
गुलाम बना दिया है
उन चंद हुक्मरानों का
जो खेल रहे हैं
खेल सियासत का
सिर्फ हमारे जिस्मों से ही नहीं
ज़हनों दिल से भी
और हम होली के रंगों में
देख रहे हैं मज़हब
दुआओं की फूंक में ढूंढ रहे हैं मज़हब
और सियासत का तमाशा यूं है
कि जिन थालियों में हमने
हमारे दोस्तों के हाथों निवाले खाए थे
वही अब तसव्वुर में
खंजर लिए
हमें डराने आते थे
जी हां वहीं अंगूठा जिससे हम
शरारत से ठेंगा दिखाते फिरते थे
वही आज एक निशान ले
हमारी पहचान मिटाने पर तुला है