अंकूर फूटने की आश जग गई थी
अहा! कितना अच्छा लगा,
उनसे मिलकर,
बाँट रहे थे ज्ञान,
अवसर आ गया द्वार पर,
प्रफुल्लित हुआ मैं,
ज्ञान-भंडार से मिलकर।
उम्मीद जगा मेरे अंदर,
अब तो कुछ कर सकता हूँ,
अब खुल सकती है मेरी भी चक्षुएँ,
अब मैं भी ज्ञान पा सकता हूँ।
अब मैं हतभाग्य नहीं रहूँगा,
अब बन सकते हैं मेरे भी भाग्य,
कर सकता हूँ मैं भी उनके लिए कुछ,
मुझे भी मिल सकता है अब सौभाग्य।
क्या मेघ धरती से मिल सकती है?
मैं भी पहले यही सोचता था,
हो गया मैं तब अचंभित,
जब वह धरती से मिल गया था।
सुना था मैं आकाश की गर्जनाएँ,
और संवेदनाएँ भी,
धरती को उर्वर करने ही तो,
करते हैं वे जल-वर्षण भी।
प्रफुल्लित हो गया मैं,
मेरे अज्ञान-खेत में,
बर्षण की शुरूआत हो गई थी,
और अंकुर फूटने की आशा जगने लगी थी।
——— मनहरण