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6 Feb 2023 · 6 min read

■ प्रसंगवश 【मनचाहे भावार्थ】

#प्रसंगवश…
■ कठिन नहीं मनचाहे भावार्थ निकालना
★ सहज संभव है शब्दों से खिलवाड़
★ तभी तो किया जा रहा है अर्थ का अनर्थ
【प्रणय प्रभात】
आज किसी भी बात को पकड़ना, उसे अपने हिसाब से तोड़ना-मरोड़ना और अकड़ना एक खेल सा बन गया है। जिसकी जीवंत मिसाल श्री रामचरित मानस की दो-चार चौपाइयों की मनमानी सी व्याख्या है। अल्पज्ञानी राजनीति की अपावन कसौटी पर उस पवन ग्रंथ को घिसने में लगे हैं, जो संसार की सर्वश्रेष्ठ जीवन-प्रणाली मानव समाज को उपहार में देता आया है। आगे भी देता रहेगा युगों-युगों तक। मात्र ध्रुवीकरण की मंशा के साथ अपने निजी पूर्वाग्रहों व मानसिक विकारों से त्रस्त मुट्ठी भर लोग ऐसा घिनौना कृत्य कर रहे हैं। उनका इरादा जात-पांत के नाम पर घृणा और वैमनस्य की उस खाई को फिर से चौड़ा करने का है, जो समय के साथ बहुत हद तक ख़त्म सी हो चुकी है। ऐसे में एक बार फिर से वर्ग-विभाजन करने वालों की मंशा पर सबसे पहले उन्हें चिंतन करना होगा, जिनकी ठेकेदारी सियासी बिसात के पिटे हुए हाथी, घोड़े और ऊंट कर रहे हैं। वो भी मुट्ठी भर प्यादों के साथ।
अब अपनी बात को साफ़ करता हूँ, कुछ रोचक उदाहरणों के साथ। शायद वो स्पष्ट कर सकें कि किसी भी शब्द या वाक्य को आसानी से कैसे मनमाना रूप दिया जा सकता है। हास्यास्पद से यह उदाहरण मेरे अपने जीवन के उन दिनों से वास्ता रखते हैं, जिसे लड़कपन कहा जाता है। आज जब ज़िम्मेदारी वाले पदों पर डटे अधेड़ों और बूढ़ों को लड़कपन सा मख़ौल करते देख रहा हूँ, वे उदाहरण ख़ुद की प्रासंगिकता को साबित करने के लिए मन में मचल रहे हैं। रखता हूँ उन्हें आपके सामने।
आपने तमाम बच्चे देखे होंगे, जो किसी भी खिलौने को देर तक सलामत नहीं रहने देते। जिज्ञासावश खिलौने का पोस्टमार्टम करते हुए उसके अस्थि-पंजर बाहर निकाल डालते हैं। फिर उसे कोई नया रूप देने की जुगत में लग जाते हैं। तोड़-फोड़ और जोड़-जुगाड़ का यह खेल पूत के पांव पालने में ही दिखा देता है। पता चल जाता है बंदा बड़ा होकर क्या कुछ करने वाला है। लगभग ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी था। अंतर बस इतना सा था कि मैं खिलौनों की जगह बातों का पोस्टमार्टम करने का शौक़ीन था। इसके पीछे की मंशा सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन की होती थी। आस्था या उसके मान-अपमान जैसा कोई भाव न दिल में होता था और न दिमाग़ में। वही काम एक लेखक और पत्रकार के तौर पर मैं आज भी कर रहा हूँ। यदि कुछ फ़र्क़ है तो वह है परिपक्वता, जो समय, स्वाध्याय व अनुभवों की देन है। आज कोई बात कहने या लिखने से पहले दिल व दिमाग़ ख़ुद “अलर्ट” जारी कर देता है। जो बात को बतंगड़ नहीं बनने देता। यह बात सियासत और ग्लैमर जगत में बिल्कुल उलट है शायद। जहां फ़िजूल की ऊल-जुलूल सुर्खी में लाने का काम करती है। जिसे लाइम-लाइट में आने और छा जाने का फंडा माना जाने लगा है। मतलब बिना खर्चा रातों-रात चर्चा में आने का शॉर्ट-कट। फिर भले ही वो शर्मनाक, सिद्धांतहीन और मूर्खतापूर्ण ही क्यों न हो।
बात कुछ उदाहरणों की थी। रखता हूँ एक-एक कर आप प्रबुद्धों की अदालत में। श्री रामचरित मानस के सुंदर-कांड की एक प्रसिद्ध चौपाई ” गरल सुधा रिपु करहि मिताई” का कॉलेज के दिनों में एक परिहासपूर्ण अर्थ मैंने निकाला। अर्थ था कि “सुधा नामक गर्ल (लड़की) दुश्मन को दोस्त बना लेती है। इसी तरह कुछ समय बाद घोर रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के दौर में श्री हनुमान चालीसा की एक चौपाई “होत न आज्ञा बिनु पैसारे” की हास्यपूर्ण व्याख्या “बिना पैसे के अनुमति मुश्किल” के रूप में हुई। इस तरह की तमाम रोचक टिप्पणियां काव्य-मंचों के संचालक के रूप में लगभग एक से डेढ़ दशक तक सूझती रहीं। जो राम जी की कृपा से कभी किसी आपत्ति या विवाद का मुद्दा नहीं बनीं। कारण सिर्फ़ तीन थे। पहला सनातनी समुदाय का सहिष्णु होना। दूसरा देश-काल और बातावरण में धार्मिक उन्माद या राजनैतिक प्रभाव न होना। तीसरा टिप्पणी का प्रयोजन किसी राग-द्वेष से प्रेरित न होकर मात्र मनोरंजन होना। जो समकालीन तमाम रचनाकार तब भी कर रहे थे। अब भी धड़ल्ले से कर रहे हैं। वो भी बिना किसी के निशाने पर आए। किसी का उल्लेख करना आवश्यक नहीं, क्योंकि इस तरह के हज़ारों प्रयोग यूट्यूब जैसे माध्यमों से करोड़ों लोगों तक पहुंच चुके हैं। जिसमें किसी ने कोई बुराई नहीं तलाशी।
जहां तक शब्दों को बदले हुए अर्थ के साथ परोसने का खेल है, बहुत कठिन नहीं। समझाता हूँ एक और छोटे से सच्चे किस्से के साथ। दिलचस्प सी यह बात वर्ष 1992 की है। तब मैं दिल्ली के “अंकुर पब्लिकेशंज” के लिए उर्दू के संकलनों का सम्पादन कर रहा था। हर महीने एक पांडुलिपि लेकर दिल्ली (शक्तिनगर) जाया करता था। इसी यात्रा क्रम के दौरान एक बार ट्रेन में बेहद रोचक स्थिति बनी। मेरे सामने वाली बर्थ पर कुछ तरुण आकर बैठ गए। जो कोई प्रतियोगी परीक्षा देकर ग्वालियर से वापस लौट रहे थे। उनमें दो लड़के आगरा व दो फैज़ाबाद (अयोध्या) के थे। जबकि बाक़ी अन्यान्य जगहों के। बातों-बातों में बात शहर के अतीत व महत्व तक आ गई। अब अयोध्या वालों के निशाने पर आगरा वाले थे। उनका कहना था कि अयोध्या का नाम तो रामायण तक मे है। जहां आगरा का कोई नामो-निशान तक नहीं। वाकई इस तर्क का कोई उत्तर नहीं था। बाक़ी भी दोनों लड़कों को इसी मुद्दे पर घेर रहे थे। जिनका मददगार उस सलीपर कोच में कोई नहीं था। यहां भी मुझे अकस्मात मसखरी सूझ गई। मैंने फैज़ाबाद वालों से कहा कि वो ग़लत हैं। आगरा का नाम सुंदर-कांड में आया है। मज़ेदार बहस का देर से मज़ा ले रहे अन्य यात्री भी चौंके। सबको पता था कि अयोध्या वाले लड़कों का दावा सही है। अब सबकी सवालिया निगाहें मुझ पर टिकी थीं। आगरा वाले लड़कों की उम्मीदें भी। मैंने अपने तर्क के पक्ष में “पेठा नगर सुमरि भगवाना” वाली चौपाई दाग थी। बता दिया कि “पेठा नगर” माने आगरा। जहां का “पेठा” तब भी इतना मशहूर था कि आगरा को “पेठा नगर” कहा जाता था। सब हैरत में थे। तुक्के में तीर लग चुका था। आगरा वाले राहत की सांस ले रहे थे। फ़ैज़ाबादी व बाक़ी कनरसिए बगले झांक रहे थे। अब यह मेरे लहज़े का आत्मविश्वास था कि औरों के पास तर्क-शक्ति व जानकारी का अभाव, काम बन चुका था।
बस यही हाल ट्रेन की उस बोगी की तरह आज मुल्क़ का है। जहां कोई भी अल्पज्ञानी अधकचरा-टाइप का ज्ञान बांट रहा है और सच से अनगिज्ञ उसे हाथों-हाथ लपक कर मूर्ख के मुरीद हुए जा रहे हैं। हिंदी और उसकी अनुषांगिक भाषाओं व बोलियों में एक-एक शब्द के अनेक अर्थ के सच से बाकिफ़ लोग भी धूर्तों के उकसावे में आ रहे हैं। अपभ्रंश के बारे में जानने वालों को भी उस झूठ पर भरोसा हो रहा है, जो किसी सजातीय द्वारा परोसा जा रहा है। यह जानते हुए भी, कि ऐसा करने के पीछे सामने वाले की मंशा क्या है। उसका सामाजिक सरोकार और ताने-बाने पर किस हद तक दुष्प्रभाव पड़ना है और उसका खामियाज़ा आने वाले कल में किसे व किस स्तर तक भोगना है? ऐसे में निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए भ्रम फैला रहे लोगों से तार्किक सवाल करना उस प्रत्येक सनातनी का दायित्व है, जो थोड़ी सी भी समझ या जानकारी रखता है।
समय आ चुका है जब ग़लत सवालों का जवाब देने में ऊर्जा खपाने की जगह सवाल के ख़िलाफ़ सवाल दागना ज़रूरी हो गया हैं। शब्दों के मनभाते अर्थ के आधार पर सामाजिक व धार्मिक अनर्थ करने वालों से पूछा जाए कि क्या उन्होंने श्री रामचरित मानस का मंगलाचरण पढा है, जिसमें प्रथम-पूज्य गणपति से पूर्व शारदा की वंदना की गई है? जिसमे स्वयं को अधम अर्थात तुच्छ मानते हुए बाबा तुलसी ने दुर्जनों तक को नमन् किया है? क्या उन्होंने समाज तत्कालीन परिवेश में शोषित-वंचित समाज के उन प्रतिनिधयों के प्रसंग पढ़े हैं जिन्हें गोस्वामी जी की लेखनी ने एक अमर कथा का अमर नायक बना दिया? जिनमे मानव ही नहीं काग और गीध जैसे जीव तक शामिल रहे। पूछा यह भी जाना चाहिए कि यदि किसी शब्द का आशय किसी समुदाय विशेष से है तो मानस जी में अन्य जातियों या वर्णों का उल्लेख क्यों नहीं है? क्या तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में जाति-परम्परा से पहले विमर्श कर्म-आधारित वर्ण-व्यवस्था को लेकर नहीं होना चाहिए? केवल समय शोशा छोड़ने वालों के सामूहिक बहिष्कार का है। ख़ुशी की बात यह है कि निरंतर प्रगतिशील दलित समाज के बुद्धिजीवी स्वयं जातिवादी नेताओं के विरुद्ध दृढ़ता के साथ उठ खड़े हुए हैं। जिन्हें अपने सनातनी जीवन-मूल्यों पर किसी अग्रणी व सम्पन्न समाज से अधिक गर्व है। भक्तराज केवट, निषाद और आदिकवि बाल्मीकि को अपना आदर्श मानने वाले श्रद्धावान भ्रम जाल में उलझने के बजाय तार्किक विवेक से चिंतन करने में पूरी तरह समर्थ हैं। जो सनातन की असली ताक़त भी हैं। आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास है कि क्षुद्र मानसिकता वालों को सटीक जवाब सबसे पहले वही लोग देंगे, जिन्होंने मानस को पढ़ा ही नहीं, जीवन का अंग भी बनाया है। जय राम जी की।।
【संपादक】
न्यूज़ & व्यूज़
श्योपुर (मध्यप्रदेश)

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