■ ग़ज़ल / बात बहारों की…!!

■ ग़ज़ल / बात बहारों की…!!
【प्रणय प्रभात】
★ बेशुमार चोटें खाई हैं कई क़रारों की।
जगह कहां है इस दिवार में और दरारों की?
★ चप्पे-चप्पे पर पतझड़ की पहरेदारी है।
हम किस मुंह से करें बताओ बात बहारों की?
★ तर्पण से पुरखों को पानी कोरी बातें हैं।
बहती नदियां बुझा ना पाईं प्यास किनारों की।।
★ सचमुच बड़ी हंसी आती है अक़्ल के अंधों पर।
गिरे हुए हैं अंधकूप में बात मिनारों की।।
★ दुल्हन है भगवान भरोसे राह विरानी है।
नीयत भी कुछ ठीक नहीं है आज कहारों की।।
★ लाखों रोग, करोड़ों रोगी, अरबों का ख़र्चा।
ठीक रहे आख़िर कैसे बस्ती बीमारों की?
★ जितना कपड़ा लगा सियासी झंडे-बैनर में।
उतने में ढंक जाती निश्चित देह हज़ारों की।।
★ फिर से लोकतंत्र के शव पर कौवे टूट पड़े।
कांव-कांव चुभती हैं आवाज़ें नारों की।।
★ सचमुच बड़ी हँसी आती है अक़्ल के अंधों पर।
गिरे हुए हैं अंधकूप में बात मिनारों की।।
★ औलादों के हाव-भाव पढ़ने में चूक गए।
वो जो भाषा पढ़ लेते थे चाँद-सितारों की।।