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2 Jul 2016 · 16 min read

“सिर्फ काली लड़कियां”

।।सिर्फ़ काली लड़कियां ।। – निर्देश निधि “सिर्फ काली लड़कियां” मेरी प्यारी बहन अन्नी आज तुझे हमसे बिछड़े हुए पूरे
अट्ठाईस बरस हो गए, अगर तू अब होती तो देख पाती कि देह के रंग के कोई विशेष
मायने नहीं होते। तेरे जाने के बरस भर बाद, जब मेधा जन्मी तो मुझे लगा जैसे
तू ही घर लौट आई । उसमें मैंने हमेशा तुझे देखा । मैंने उसे नहीं, जैसे तुझे
पाला। तेरे अंतहीन, अपराजेय अवसाद को निर्मूल कर देने की धुन में उसे पूरी
तरह आत्मनिर्भर और सक्षम बना दिया । तेरी इस भतीजी ने आई आई टी रुड़की बी टेक
इलेक्ट्रौनिक्स में टॉप किया । डिफ़ैंस कॉलेज ऑफ एडवांस टैकनोलोजी से एम टेक
में भी टॉप ही करने के बाद उसे डी आर डी ओ द्वारा चलाए जा रहे प्रोग्राम में
भारत के दस युवाओं में से एक चुना गया। वहीं उसे अपेक्षाकृत कठिन कोर्स,
गाइडेड वैपन के निर्माण के लिए चुना गया । उसके, यानि तेरे सातों आसमान तब
उसकी, यानि तेरी मुट्ठी में कैद हो गए जब उसे भारत की जटिलतम मिसाइल निर्माण
के लिए वैज्ञानिकों की टीम का प्रमुख चुना गया । सफल होने के रास्ते तो और भी
हो सकते थे अन्नी, पर मैंने उसे वहीं भेजा क्योंकि वैज्ञानिक परीक्षण
वैज्ञानिक की देह का रंग देखकर सफल या असफल नहीं होते । अब उसका जीवन उसके रंग
रूप से तो प्रभावित होने नहीं जा रहा अन्नी । पता है तेरी इस काली स्याह भतीजी
मेधा के सामने एक से एक गोरी लड़कियों के सौंदर्य फीके पड़ गए, सहपाठी लड़कों के
पुरुषत्व के घमंड में प्रधान बनने के सारे के सारे अभिमान उसके व्यक्तित्व से
टकरा कर चूर – चूर हो गए। काश तू भी अभी जन्मती अन्नी तब जबकि मैं इतना बड़ा
था, तब तुझे यूं हिम्मत हारनी नहीं पड़ती मेरी प्यारी बहन । बाबू जी ने हम
तीनों भाइयों की अच्छी शिक्षा के लिए सीमित साधनों का हवाला देकर तेरी शिक्षा
कुर्बान कर दी ।उस समय मेरे लाख समझाने पर भी वो नहीं समझे कि उनके घर में
जन्म लेकर तू पराया धन नहीं हो सकती । विवाह तो हम सबके भी हुए ही । चल मैं तो
उनके पास रह पाया पर बाकी दोनों भाई तो परदेश जाकर उनके पास उतना भी नहीं आ
पाये जितना तू आ पाती अपनी ससुराल से उनके पास । बाबू जी की पुरानी सोच पर तू
उन्हें क्षमा कर देना अन्नी । तेरा दुःख मैंने हमेशा समझा । तुझे आशा बंधाने
और समाज को राह दिखाने के लिए ही तो मैंने आभा से विवाह किया था । कितना नाराज़
हुए थे माँ बाबू जी दोनों आभा से विवाह के नाम पर । उन्होने आभा को आज तक मन
से कभी स्वीकारा ही नहीं । तू तो अच्छी तरह जानती थी, फिर इस तरह हिम्मत क्यों
हारी तूने ? जबसे तू गई है तबसे मेरे जेहन में तो तेरे जैसी सिर्फ काली
लड़कियां ही घूमती रहती हैं अन्नी, जैसे उन सबकी कुशलता की ज़िम्मेदारी मेरी ही
हो । इस बार मैंने तुझे, यानि तेरी भतीजी मेधा को , काले गोरे के पचड़े से
निकाल कर आत्मविश्वास का अनंत आकाश उसकी मुट्ठी में भर कर उसे, यानि तुझे
पूर्ण सक्षम बनाया है। अब तो तू खुश है न अन्नी ? दिनांक – 13 अप्रैल 2009 ।
पति की डायरी का यह पन्ना पढ़कर आभा को पता चला कि अजय विश्वास जैसे गोरे
चिट्टे व्यक्ति ने उस काली बेसूरती लड़की से विवाह क्यों किया था । तीन भाई थे
अन्नी के । दो विदेश चले गए थे सबसे छोटा अजय इंजीनियरिंग करके अपने ही शहर
में नौकरी कर रहा था । सबसे छोटी और इकलौती बहन थी अन्नी, काली स्याह अन्नी ।
सचमुच बहुत ही काला रंग था उसका, मैला – मैला सा , छोटी – छोटी, गोल – गोल
आँखें , सलेटी रंग के होंठ और सिर पर उलझे – उलझे काले घुंघराले बालों का
बेतरतीब घना छत्ता, पिता जैसा पक्का रंग, माँ जैसे हौच पौच नैन नक्श और
ठिगनी रास । पढ़ाई के नाम पर भी उसके पिता उसे आर्ट्स में ग्रैजुएट ही करा
पाये थे, वो भी प्राइवेट, जिसके इस गलाकाट प्रतियोगिता वाले समय में मायने ही
क्या हैं । फलस्वरूप उसका मन रसोई में रम गया था। पाक कला की शौकीन और
प्रवीण अन्नी खूब बनाती, खूब खिलाती और खूब खाती भी । इस स्वादीले शौक के
चलते कब उसका शरीर उसकी उम्र से बड़ा हो गया पता ही नहीं चला । उसमें किसी लड़के
या लड़के वालों को “पसंद” करने योग्य कोई विशेष तो क्या साधारण बात भी दिखाई
नहीं दी । तो क्या कोई भी गुण दिया ही नहीं था प्रकृति ने उसे ? नहीं, ऐसी
बात नहीं, उसे तो गुणों की खान भी कहा जा सकता था , उसकी निर्दोष खिलखिलाहटें
, उसकी दुर्लभ निश्छलता ,धुले पारदर्शी काँच सा साफ मन और अपने पराए हरेक के
लिए उसकी छोटी – छोटी आँखों से झाँकता स्नेह का विशाल सागर , क्या ये वो
विशेषताएँ नहीं हैं जिन्हें उसके गुणों में सम्मिलित किया जा सकता ? परंतु
बाजारवाद के इस अंधे युग में अकसर खूबसूरत कवर में घटिया चीज़ें खरीद लाने
वाले लोग आंतरिक सौन्दर्य के याचक होते ही कहाँ हैं। अन्नी भी दूसरी सभी
लड़कियों की तरह अपने अंतस में छिपाकर, अपने सपनों के राज कुमार की रचना बड़ी
तरतीब से करती । उसमें कौन सी विशेषताएं हों और कौन से अवगुण न हों, सावधानी
से तय करती । सपनों का राजकुमार आता तो ज़रूर पर उसकी झलक मात्र पाकर उल्टे
पाँव भाग खड़ा होने को आतुर रहता ।फलतः अन्नी को अपने ही द्वारा सावधानी से घड़ी
सपनों के राजकुमार की उस मूरत को मजबूर होकर रेत के घरोंदे सा मिटा देना पड़ता।
खुशी – खुशी फिर से सपनों के नए राजकुमार का सृजन कर्म तेज़ी से चलता । ठीक
वैसे ही जैसे विश्वकर्मा पल भर में कोई पूर्ण व्यवस्थित नगर बसा दे । आरंभिक
अस्वीकार तो उस ज़िंदादिल लड़की की आशा को पराजित नहीं कर सके , परंतु निरंतर
अस्वीकारों की दलदली ज़मीन में उसकी आशा धीरे – धीरे धँसती चली गई । वह उससे
निकलने को जितना छटपटाती, अस्वीकारों की दलदल उसे उतनी ही नीचे खींचती जाती ।
प्रतिक्रिया स्वरूप निराशा और हताशा अपना आकार बढ़ाती ही चली गई । उस
अनभिज्ञ, भोली लड़की को अपने काली – कुरूप होने के इस कदर दुष्परिणाम का तो
अभी तक गुमान भी नहीं था । वो इस तरह हतप्रभ रह गई । जैसे किसी को अकस्मात
पता चले कि उसका सब कुछ लुट चुका है, यहाँ तक कि उसके पैरों तले की ज़मीन भी
उसकी अपनी नहीं है । अब गहरी चिंता में डूब चुकी अन्नी , अपलक जागती हुई
रातों में प्राण लेवा निराशा से निपट अकेली ही जूझती। कभी बेतहाशा आँसू
बहाती, कभी माता – पिता के संसर्ग के क्षणों को कोसती। सोचती, “कितनी घृणा और
कुत्सित विचार भरे होंगे उस क्षण परस्पर उनके मध्य, संभवतः मात्र काया ही मिलन
करती रही होगी पर मन किंचित भी प्रफुल्लित न हुए होंगे दोनों के, अन्यथा
सृजन के उन सुंदरतम, कोमल क्षणों का प्रतिदान उसकी इस महा कुरूप काया में
क्योंकर प्रकटता ?” कभी सोचती कि, “वह कहीं माता – पिता के प्रेम में फरेब और
कपट की प्रतिछाया तो नहीं ? वरना तीनों बड़े भाई इतने कुरूप, काले क्यों न
हुए।“ उसने कहीं सुना था कि पति – पत्नी में से जो भी अपनी बात दृढ़ता से मनवा
लेता हो संतान उसी का रंग – रूप ग्रहण कर लेती है । तो क्या माता – पिता
दोनों ही बराबर की ज़िद करते रहे होंगे, ज़िद भी बेढंगी जिसकी वजह से दोनों के
व्यक्तित्व के मात्र दुर्गुण ही आए उसमें । मलाल करती कि काश माँ का रंग और
पिता के नैन नक्श भी उसे मिल गए होते तो वह इतनी काली – कुरूप तो ना ही हुई
होती । वह रह – रह कर अधीर हो उठती, स्वयं से ही अनेक निर्मम प्रश्न करती । “क्यों
– क्यों ? आखिर क्यों नहीं पहचानता कोई मन की अच्छाइयों का अप्रतिम रूप ,
क्यों नहीं देखता कोई प्रेम की स्निग्धता , समर्पण का चमचमाता उजला रंग ? देह
पर चढ़ी झीनी, काली परत क्यों हावी हो जाती है इंसान की इन भारी भरकम अच्छाइयों
पर ?” अन्नी ने एक बार माँ को अपनी एक सहेली का वज़न कम करने के लिए जिम जाना
बताया और दूसरी का ब्यूटी पार्लर जाना, इस आशा के साथ कि माँ प्यार से कहेगी,
अन्नी बेटा तू भी चली जाया कर जिम और ब्यूटी पार्लर अपना रंग – रूप निखारने ।
पर उसकी आशा के विपरीत, लड़के वालों के घर से कल ही हुई न से झुंझलाई हुई निपट
गँवारी माँ उस पर चिल्ला कर पड़ी , “दुनिया की होड़ करो बस । खुद की शकल –
सूरत तो देखो मत । उन्हें देख और खुद को देख । यूं भी उनके बाप तो रिश्वत
की कमाई बोरे भर – भर लाते हैं , तेरे बाप से कमाई गई ऊपर की कानी कौड़ी भी जो
तुझे ब्यूटी पार्लर भेजूँ । इतना शौक चढ़ा है गोरी होने का तो खड़िया रगड़ ले ।
कसरत करने जिम जाएंगी महारानी । घर का काम करो , कौन सी कसरत बड़ी है इससे ?
सारा दिन बकरी की तरह चर – चर कर बोरे सी फूल गई है । कौन जाने मेरे किन पाप
कर्मों का फल दिया ऊपर वाले ने तीन तीन सजीले बेटों के इतने दिनों बाद तुझ
जैसी काली कलूटी बेटी मेरी गोद में डालकर।“ माँ के इस अप्रत्याशित व्यवहार पर
वो किसी महापाप कर लिए जैसे निरपराध से अपराधबोध से भर उठी थी , दृष्टि पाँवों
के पास ज़मीन पर चिपक कर रह गई थी कहीं और पाँव, वहीं ज़मीन में गढ़े से रह गए थे
देर तक दरअसल कोई माँ इस कदर कठोर नहीं हो सकती सच है । अन्नी की माँ भी तो
कहाँ थी इस कदर कठोर । परंतु मध्यम वर्गीय परिवारों में पैसे की किल्लत बनी
रहती है और कोई माने या न माने पैसा प्यार और स्नेह को भी प्रभावित करता है
ज़रूर । उसके भरे पूरे आगार में सेंघ लगाता है ज़रूर । यही हुआ था अन्नी के साथ
भी तो । अन्नी की माँ भी उसे हर माँ की तरह प्यार ही करती थी । परंतु उसके
ब्याह के दानव ने उस प्यार में दाग लगा दिया था । बार – बार अन्नी को
अस्वीकृत किया जाता रहा । कोई एकाध अगर अन्नी की शक्ल सूरत पर समझौता करने को
तैयार भी होता तो वह दहेज इतना मांग लेता कि उनका यह मध्यमवर्गीय परिवार जुटा
ही न पाता , पिता ने तो इतना कभी कमाया ही नहीं था , बेटों की कमाई भी शुरुआत
ही थी । अतः अन्नी के साथ साथ उसके माँ बाबू जी का संतुलन भी बिगड़ने ही लगा था
। पिता तो फिर भी कुछ दूरी पर ही रहे पर माँ का हर समय का चिड़चिड़ाहटों से भरा
सानिध्य अन्नी को मार गया । सारे समाज के तिरस्कार के साथ अपनी ही माँ के
द्वारा तिरस्कृत होकर छलनी – छलनी हुई वो बेबस लड़की ईश्वर से पूछती, “हे
ईश्वर, संसार को तो छोड़ो तुम ही ने कौन सा रहम कर दिया मेरे ऊपर ? मेरी जो माँ
स्नेह की प्रतिमूर्ति थी उस तक के मन में मेरे लिए अथाह घृणा भर दी, तो दूसरे
किसी से क्या आशा रखूँ ? अजय भैया ना होते तो मैं कभी की मर ही चुकी होती ।“ कभी
वह ईश्वर से पूछती, “तुमने ये क्या किया प्रभु, सिर्फ आँखों को काली बनाने
वाली गाढ़ी काली स्याही मेरी सकल काया पर ही उड़ेल दी ?“ कभी वो माँ से छिप कर
चेहरे पर मुलतानी मिट्टी, तो कभी बेसन का लेप लगाती, कभी चुपके से भाभी की
गोरेपन की क्रीम लगा लेती, पत्रिकाओं में सबसे पहले रंग निखारने के नुस्खे ही
पढ़ती । पर अपनी मौलिकता पर दृढ़ प्रतिज्ञ चेहरे का रंग उन्नीस – बीस का अंतर भी
तो ना दिखाता । अन्नी ने काया को छरहरी करने के कठिन क्रम में घर के काम काज
का अधिक से अधिक भार खुद पर ले लिया था , खाना भी ना के बराबर ही खाती । खाने
की शौकीन वो मासूम लड़की भूखी रहकर अवसाद की चपेट में आने लगी । रोज़ – रोज़
लड़का खोजने जाते रहने के व्यय और थकान से आजिज़ आ गए निम्न मध्यम वर्गीय पिता
भी उसको ही परेशानी का कारण मानने लगे और उसके प्रति उनकी दृष्टि भी कठोर होते
गई जिसने उसे भीतर तक आहत कर डाला । रही सही कसर भाई अजय की नौकरी में
व्यस्तता ने पूरी कर दी । वह रात पड़े ही घर में घुस पाता, घर आकर भी
कम्प्यूटर पर काम करना होता, बचा हुआ थोड़ा बहुत समय, पत्नी आभा को भी देना ही
होता । परिवार और समाज द्वारा कुछ अंजाने ही और कुछ जान पूछकर की गईं
उपेक्षाओं के मध्य वो निश्छल, निर्मल मन भोली लड़की भ्रमित होकर रह गई । ऊपर
से दिल दहला देने वाली भयावह, हर अस्वीकृति के बाद , अपनी ही माँ के ताने
– उलाहने और अपने ही पिता की कठोर होती दृष्टि सहती , अंत में हताश हो उन्हीं
भयानक अस्वीकारों , तिरस्कारों, उपेक्षाओं और ताने – उलाहनों की मजबूत
रस्सी बट कर इकत्तीस बरस की आयु में वो अपनी काली, मोटी काया लेकर पंखे से
झूल गई । वो भोली घरेलू लड़की, दूसरी पढ़ी – लिखी लड़कियों की तरह अपनी भावुकता
पर नकेल कसना सीख ही कहाँ पाई थी । परिवार अपनी नासमझियों का यह प्रतिफल सोच
भी नहीं सकता था । सब हताश थे विशेषकर अजय बहुत व्याकुल हो उठा था ।उसे बार
बार पश्चाताप होता कि काश उसने थोड़ा अधिक समय दे दिया होता अन्नी को, तो उसे
यूं मरना न पड़ता । अन्नी की आत्महत्या के ठीक एक बरस बाद अन्नी के तीसरे,
यानि सबसे छोटे भाई अजय विश्वास की पहली संतान, उसकी बेटी ने जन्म लिया ।
बच्ची की झलक मात्र ही परिवार का दिल बैठाने के लिए काफी थी । जैसे मर कर भी
अन्नी अपने प्यारे भाई अजय से अलग रह नहीं सकी थी । और बरस भर बाद, इतिहास को
दौहराने चुपके से वापस अपने घर चली आई थी। बच्ची का जन्म घर में खासा मातम
लेकर आया । अन्नी की भयावह मृत्यु का धुंधलाता दृश्य खुद को झाड़ पोंछ कर घर के
हर सदस्य के दिल में सीना तानकर आ खड़ा हुआ । सब एक दूसरे से आँखें चुरा रहे
थे, कभी दीवार पर टंगी अन्नी की माला चढ़ी तस्वीर को देखते कभी दृष्टि चुराकर
उस नवजात को । रूपरंग को लेकर समाज की खोखली मान्यताओं से जन्मी उपेक्षा ने
माँ आभा की आँखों से बच्ची के लिए नैसर्गिक ममता को पीछे धकेल दिया था । आभा
की आँखों में अन्नी की असमय मृत्यु का आतंक उस नन्ही बच्ची के भविष्य के भय से
जुड़ गया था । जिसे बच्ची के पिता अजय विश्वास ने सहज ही ताड़ लिया । स्त्रियाँ
भी विचित्र ही होती हैं खुद कैसी भी आड़ी तिरछी क्यों न हों परंतु बहू बेटियों
में रूप सौंदर्य की कमी उनके लिए घर में जैसे अमावस्या सा अंधकार ला पटकती है
। कहीं न कहीं उसे संतोष ही हुआ था इस रूप में अन्नी के लौट आने का । वह इस
बार अन्नी के अथाह प्यार के ऋण से उऋण होने का अवसर पा गया था जैसे । इस बच्ची
को योग्य बनाकर माँ, बाबूजी और सारे समाज द्वारा की गई उसकी उपेक्षा और उसके
साथ हुई नाइंसाफी के पश्चाताप से मुक्ति पा जाने का यह रास्ता दिया था
प्रकृति ने उसे वह समझ गया । और उसने आभा के पास लेटी बच्ची को अपनी गोद में
उठा लिया था । माँ – बाबू जी को उनकी पहली पोती तथा पत्नी को उसकी पहली संतान
की बधाई देकर माहौल को थोड़ा हल्का किया । अजय अपने परिवार में सबसे अधिक पढ़ा
लिखा था, प्रगतिशील विचारों से भरा युवा, आधुनिक होते समाज का हिस्सा, जो यह
जानता था कि आने वाला कल स्त्री का भी होगा जहां उसके रंग रूप से उसका जीवन
प्रभावित नहीं होगा । इसलिए वही कर सकता था यह सब । इसलिए नहीं कि वह पुरुष था
तो वही सोच सकता था । एक स्त्री वो भी माँ, अपनी बेटी के लिए ज़रा भी नरम नहीं
थी और एक पुरुष, भाई ही सही पर अपनी बहन की पीड़ा को समझ सका । अपने लिए उसके
निःस्वार्थ प्यार को समझ सका था , जिसका प्रतिफल न दे पाने का पश्चाताप बारीक
सुईं की नोक बनकर उसे भीतर तक कचोटता रहता । स्त्री अगर अन्नी के स्थान पर कोई
और होती जिसने समाज के, घर के इस रूप से आजिज़ आकर यह कदम उठाया होता तो संभवतः
अजय भी तटस्थ ही रहा होता परंतु यह तो उसकी लाड़ली बहन अन्नी के साथ ही हुआ था
न । इस समय उसकी तटस्थता उसके जीवन को निर्मूल ही कर सकती थी । आभा ने बच्ची
का रंग निखारने के लिए कौन सा उपाय नहीं किया परंतु प्रकृति अभी मिलावट खोरी
से बची हुई है । उसकी ईमानदारी सिद्ध करता बच्ची का पक्का रंग टस से मस नहीं
हुआ । अपने पसंदीदा फुलकारी वाले जिस गुलाबी दुपट्टे को ओढ़कर अन्नी ने अपने मन
में न जाने कितने सपने पोसे होंगे, उस भयावह रात उसी गुलाबी दुपट्टे से बंधकर
लटकती हुई अन्नी की लंबी हो गई गर्दन, उसकी फटी हुई आँखें, उसके मुंह से लंबी
होकर बाहर निकल आई सफ़ेद जीभ, पंखे से लटकी उसकी काली, मोटी सकल काया, रात को
आँखें बंद करते ही अक्सर आभा के आगे झूलने लगती और वो भयभीत हो अचानक चीख
पड़ती । अजय ने उसके अनकहे भय को भाँप लिया था । इकलौती लाड़ली बहन को खो देने
का दुःख भूलने का तो प्रश्न ही कहाँ था, अभी तो अजय उसकी आत्महत्या के कारण
से ही समझौता नहीं कर पाया था । इस बच्ची ने उसके घर में जन्म लेकर तो जैसे
उपकार ही किया था उसपर । उसकी आत्मा से अन्नी की तर्कहीन आत्महत्या का बोझ
उतारने का उपकार । बचपन के वो दिन याद थे उसे जब अन्नी सबको छोड़कर “छोते
भैया छोते भैया” कहती उसके पीछे दौड़ती रहती। अजय के सिवा उसे किसी और का साथ
बिलकुल भी तो न सुहाता। माँ सारे बच्चों को खाने की चीज़ें बांटती तो अन्नी
अपना हिस्सा भी अजय को देने लगती । अजय थोड़ा सा लेकर प्यार से उसे अपने पास
बैठाकर बाकी उसे ही खिला देता । और वो अजय से छह सात बरस छोटी अन्नी खुश होकर
उसके कंधों पर झूल जाती। और वह बात वो कैसे भूल सकता था , जब अजय ट्यूशन जाने
के लिए साइकिल की ज़िद कर रहा था और बाबू जी ने साफ मना कर दिया था तो अजय खूब
दुखी हुआ था । तब नन्ही सी अन्नी ने अपने छितरे हुए बालों के पीछे छिपे कानों
से अपनी छोटी छोटी बालियाँ उतारीं और उसे देकर कहा था, “छोते भैया इसते बदले
में पैसे मिलते हैं । हाँ – हाँ सच्ची । एत दिन माँ ने बाबू जी तो यही तह
तर अपने तड़े दिये थे । सच्ची बता रही हूँ भैया, तुम साइतिल ले लेना इसते बदले
वाले पैसों में।“ उस दिन अजय ने अपनी उस मासूम बहन को अपने गले से लगा लिया था
और वो नन्ही नन्ही बालियाँ उसके कानों में ही पहना दीं थीं ।यह कह कर कि
साइकिल मैं बाद में लूँगा । और फिर उसने माँ बाबू जी से कभी साइकिल की ज़िद
नहीं की थी । एक बार जब वह अपनी इंजीनियरिंग के लिए होस्टल चला गया था तब
अन्नी को बुखार आ गया था । तेज़ बुखार में वह बड्बड़ाती, “छोते भैया , छोते भैया
आ जाओ……..“ जब दवाइयों से बुखार उतरा ही नहीं तो डॉक्टर ने उसके छोटे भैया
को ही बुलाने की सलाह दी थी । अजय को आना ही पड़ा था तभी बुखार उतरा था अन्नी
का । फिर बोलकर गया कि वह हर हफ्ते उसे खत लिखेगा और पड़ौसी गुप्ता अंकल के फोन
पर हर हफ्ते फोन भी करेगा उसे । तब कहीं वापस जा पाया था अजय । कहाँ भूल पाया
था अपनी पढ़ाई की जागती अनगिनत रातें जिनमें छोटी सी अन्नी ने अपनी नींदें
कुर्बान की थीं उसका साथ देने के लिए । उसके पास चुपचाप बैठी गोल मटोल अन्नी
पहले तो स्कूल की किताबें पढ़ती जब थक जाती तो कभी चन्दा मामा पढ़ती , कभी माँ
द्वारा दिन में बीनने को दिये चावल ही बीनती रहती देर तक । भाई को नींद आती
तो धाप – धाप चलकर छोटी सी अन्नी उसके लिए झट से चाय ले आती, दो चार बातें
बनाती, न जाने कहां कहाँ के चुट्कुले सुनाती खूब हँसाती और उसे पुनः स्फूर्त
कर देती । खाने में जब भी कुछ विशेष बनता सबसे ज्यादा उसके लिए ही ले आती ,
अपने जोड़े हुए पैसे उसे पिकनिक या शौपिन्ग के लिए दे देती, उसका कमरा सबसे
अच्छी तरह झाड़ती – पोंछती, उसके लिए पिता तक से लड़ जाती । और भी न जाने कितनी
बातें थीं जिन्हें चाहकर भी भूल ही नहीं सकता था वह । अजय भी उसे असीम स्नेह
करता, यूं भी किसी भाई को बहन के शारीरिक सौन्दर्य से भला क्या सरोकार , उसे
तो दिखाई देता है सिर्फ मन । जो गलतियाँ अन्नी के साथ हुईं वो इस बच्ची के साथ
हरगिज़ नहीं दौहराई जाएंगी ऐसा निश्चय किया अजय ने । माता-पिता और पत्नी के लाख
आग्रहों के बावजूद अजय ने किसी दूसरी संतान के विषय में सोचा तक नहीं । अपनी
वंश परंपरा का संवाहक उसने अपनी बेटी को ही बनाया । परिवार द्वारा दूसरी संतान
के आग्रह पर वो हर बार यही तर्क देता कि, “माँ बाबूजी, अगर अन्नी भी आपकी
इकलौती संतान होती तो क्या आप उसकी शिक्षा और व्यक्तित्व पर ध्यान नहीं देते
? और अगर वो भी हम तीनों भाइयों की तरह बड़ी – बड़ी कंपनियों की कमान संभाल रही
होती तो क्या अपनी बुद्धि को एक तरफ रख अपने तन पर लिपा गाढ़ा काला रंग ही
देखती रहती ? पचासियों पढ़े – लिखे लोगों की मुखिया बनकर, अपने कैरियर के
चमचमाते प्रभात के आगे तन पर चढ़ी साँझ को ही हावी होने देती खुद पर ?” बेटी
की अधिकतम जिम्मेदारियाँ उसने स्वयं उठाने का उद्घोष कर दिया था घर में , पंडित
से नाम करण न करवाकर नाम भी स्वयं ही रखा, “मेधा विश्वास” । माँ ने समझाना
चाहा, “बेटियाँ तो माँ के सानिध्य में ही ठीक पलती हैं बेटा ।“ अजय स्वयं को
पल भर भी तो नहीं रोक सका था माँ को कड़वा उत्तर दिये बगैर । “इस बच्ची के लिए
आभा की आँखों में मैंने वही तिरस्कार देखा है माँ , जो अन्नी के लिए कोई लड़का
न मिलने पर तुम्हारी आँखों में आ गया था उसके लिए । । क्षमा करना माँ, तुम
स्त्री होकर भी क्या अपनी इकलौती मासूम बेटी का दुःख समझ पाईं थी , अगर तुम अड़
गईं होतीं कि बेटों की तरह ही तुम्हारी बेटी भी उच्च शिक्षा लेगी तो क्या
बाबूजी को मानना नहीं पड़ता ?” “अजय…..” अपने भीतर तेज़ाब से खौलते अपराधबोध
से तिलमिला कर माँ ने अजय को रोकना चाहा । परंतु वह रोक नहीं सकी थी उसे बल्कि
वह और भी उग्र होकर बोला था, “ तुम चुप रहो माँ, माँ होकर भी कहाँ देख पाईं
थीं तुम अन्नी के भीतर की बेचैनी , कि अपने काले रंग को बस ज़रा सा निखार
लेने की कितनी ललक होने लगी थी उसे अपने अंतिम दिनों में । मैंने देखा था,
उसे घोर अवसाद में घिरकर चुपके – चुपके अकेले आँसू बहाते हुए । पुरुष होकर
भी मैंने महसूस की थी उसकी छोटी – छोटी आँखों में समाई विकराल विवशता । हाँ
मैंने देखी थी, उसके सतही शांत व्यवहार के भीतर कलेजा चीर देने वाली भयानक
उथल – पुथल । मुझसे छिपा नहीं था उसकी फीकी मुस्कान के पीछे का तड़पा कर रख
देने वाला भयानक रुदन । मैं उसका प्यारा भाई ही सही, पर था तो पुरुष ही ।
कैसे कह पाती वो निरीह अपने मन की, सब कुछ खोलकर मुझसे ?” “अजय …….अब बस
भी कर । “ माँ अपने कानों पर हाथ रखकर रोने लगी थी। “तुम कहती हो मैं अपनी
इस नन्ही सी बच्ची को आभा के भरोसे छोड़ दूँ ? नहीं माँ, मैं अन्नी को दुबारा
मरने नहीं दे सकता ।

निर्देश निधि, द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन ,
कचहरी रोड , बुलंदशहर (उ प्र ) पिन – 203001 ,

Language: Hindi
8 Comments · 1751 Views
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खुद ये महदूद दायरा रक्खा,
Dr fauzia Naseem shad
4707.*पूर्णिका*
4707.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
व्यक्ति को ख्वाब भी वैसे ही आते है जैसे उनके ख्यालात होते है
व्यक्ति को ख्वाब भी वैसे ही आते है जैसे उनके ख्यालात होते है
Rj Anand Prajapati
चूल्हे की रोटी
चूल्हे की रोटी
प्रीतम श्रावस्तवी
पत्थर (कविता)
पत्थर (कविता)
Pankaj Bindas
*अमृत कुंभ गंगा ऋषिकेश *
*अमृत कुंभ गंगा ऋषिकेश *
Ritu Asooja
दोहा- अभियान
दोहा- अभियान
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
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