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7 Apr 2017 · 1 min read

“”साजिश””

देखते ही देखते सपना कोई टूट गया।
एक साजिश औ अपना कोई छूट गया।।

रख गलत इरादा हर फैसला करते थे वो,
चुप्पी से मेरी हर बार नया कोई रूठ गया ।।

क्या शक होता जब हर हुनर हमारा था।
दिया हमे मात घर हमारा ही लूट गया।।

बमुश्किल खड़ी की थी सच की इमारत,
साजिश चली तो हमें कहा झूठ गया।।

आवाज उठाई हमने तो बागी हम हुए,
फिरकी फिराई उसने हर हमें कूट गया।।

पी रखे थे हम घूंट इतने कड़वे कड़वे,
मयकदा का हमसे न पिया एक घूंट गया।।

हम भी खुश हुए जब हमने रची “जय”
नेकराह चल पड़े जब सब्र बाँध फूट गया।।

संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म. प्र.

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