सरप्लस सुख / MUSAFIR BAITHA
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धन-संपत्ति का जखीरा जुटाए एक असामाजिक तत्व के बंगले से भोरे-भोरे कबीर के एक सन्देशमूलक भजन की आवाज सुनाई दे रही थी – ‘साईं इतना दीजिये, जामे कुटुम समाय। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए!’
दिन बीतना अभी बाकी था अच्छा-ख़ासा। इस धन-भुक्खड़ को आज के अपने सभी धन संयक गर्हित करतब संपादित होने बाक़ी थे। अनेक कुटुम्बों के हक़-हिस्से छीनना बाक़ी थे, दूसरों के सुख के हिस्सों को साम-दाम-दंड-भेद में से उपयुक्त पेंच भिड़ा अपने सरप्लस सुख में इज़ाफ़ा करने का आज का कोटा पूरा करना अभी बाक़ी था!