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6 Feb 2017 · 1 min read

शून्य सा अवशेष मैं…

इन शून्य विहीन आँखों से
जब निहारता में शून्य को,

तो शून्य सा अवशेष मैं
खो रहा इस शून्य में,

इंसान भी निज स्वार्थ में
हो गया अब शून्य है,

शून्य है बे-असर मग़र
खो रहे सब शून्य में,

मस्तिष्क अगर हो शून्य गया
तो बिखर जाओगे शून्य से,

आँखों में “अहम्” का गुरूर लिऐ
खो गये अनेकों शून्य में,

सौ, हजार और लाख में
खेल है बस शून्य का,

शून्य के इस खेल में
तुम हो रहे सब शून्य हो,

मैं हूँ शून्य, तुम हो शून्य
सृष्ठि का उद्गम भी शून्य,

वासुदेव भी बता गये
सब निहित है इस शून्य में,

अर्थ विहीन, अस्तित्व रहित
ग़र है यही शून्य तो,

आर्यभट्ट को जानते फिर
क्यों है इसी शून्य से..???

शून्य सा “मैं” शून्य हो
देखता बस शून्य को,

अंत है इस शून्य में तो
हो रहे सब शून्य क्यों…???

शून्य के गुणगान में
मन हो रहा अब शून्य है,

शून्य सा अवशेष मैं
बस खो गया इस शून्य में….!!

Language: Hindi
Tag: कविता
215 Views
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