“शायद.”
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वर्जना भी चुप सी, रह गयी शायद।
लाज की दीवार, ढह गयी शायद।
आज उठकर, यकबयक क्यूँ चल दिया,
बात मेरी, उसको, चुभ गयी शायद।
भावनाओं के, अपरिमित ज्वार मेँ,
बुद्धि की पतवार, बह गयी शायद।
क्यों मिलन का, फिर से वादा कर गया,
बात इक, दिल मेँ ही, रह गयी शायद।
रोते-रोते, क्यों थी, “आशा” हँस पड़ी,
इक ख़बर अच्छी भी, मिल गयी शायद..!
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