“मित्रता”
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हास्य है, हर पल, मगर, गरिमामयी, व्यवहार है,
मित्रता, अनमोल, अद्भुत, अमिट, इक सँसार है।
दिल दुखाने, दर्प करने, का भला औचित्य क्या,
मित्र सँग, कँटक भी, पुष्पोँ का लगे, आगार है।
मित्र का दुख देख,द्रवित हुआ हृदय क्यों,मित्र का,
क्यों बही, बरबस, बता, नयनों से यह जलधार है।
विहग वृन्द, विभोर, कर कलरव, कथानक रच रहे,
मित्रता निश्छल, नहीं होता यहाँ, व्यापार है।
सरसता, समभाव सँग सहचार सुरभित हो सदा,
ना किसी की जीत इसमें, ना ही होती, हार है।
वार्ता की भी भले, भरसक लगे, दरकार है,
मौन की भी समझ लेकिन, मित्रता का सार है।
पल्लवित, पुष्पित, प्रखरता से होँ प्रतिभाएँ सभी,
मित्र, यह कविता नहीं, कवि का प्रबल उद्गार है।
होँ क्षमा त्रुटियां सभी, सादर, सकल “आशा” यही,
उर से सब मित्रों का हरगिज़, कोटिशः आभार है..!
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