बेड़ियाँ
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अपेक्षायें, कुछ इच्छाएं
कामनायें और सपने
सताते हैं
जब क़दम बढ़ाते ही
मान्यताओं के
गड्ढे आ जाते हैं
उठते हुए पांव
रोक दिये जाते हैं
परम्पराओं की रस्सी से
बाँधा दिये जाते हैं
तड़पता है दिल
रात दिन रोते हैं
खोये हुए सपनों के
मिटे चिह्न खोजते हैं,
तर्पण कर दें!
भूला दें!
सदा के लिए…
सीख लें,
ना सिर्फ़ जीना
बल्कि
मरना भी
परम्परा के लिऐ,
सामाजिक रूढ़ियों
और
बेड़ियों के लिये ?????