फिर जीवन पर धिक्कार मुझे
![](https://cdn.sahityapedia.com/images/post/fea146525098efc1d2435afc0d1ca74b_d02f2f56c7542f5afcdfc17ae15c06f5_600.jpg)
फिर जीवन पर धिक्कार मुझे
माना की बहुत अंधेरा है,
हर ओर दुखो का डेरा है।
ना ढूंढ तनिक तू इधर उधर
खुशियों का यही बसेरा हैं।।
हाँ भले किनारा नही मिला, पर थाम रही पतवार मुझे,
गर हार गया विपदाओं से, फिर जीवन पर धिक्कार मुझे।।
कब वीर समय से ही हारा है,
कर मेहनत वही किनारा है।
वो तोड रहे है लाख मगर,
अपना तू स्वयं सहारा है।।
हा कष्ट भरी इन रहो से, ना डरना है स्वीकार मुझे,
गर हार गया विपदाओ से, फिर जीवन पर धिक्कार मुझे।।
तू आस हजारो आँखों की,
अनकहे बहुत जज्बातों की।
गर गिर जाए तो उठ जाना,
लडिया सम्मुख है काँटों की।
मेहनत के उसी सहारे से, मिल जाएगा संसार मुझे,
जो हार गया विपदाओ से, फिर जीवन पर धिक्कार मुझे।।