थक गया हूँ जिन्दगी
थक गया हूँ जिन्दगी
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क्या मिला अब तक मुझे
तेरे इस जहांन से
थक गया हूँ जिन्दगी
मैं तेरे इम्तहान से।
कहने को अपने सभी है
साथ में फिर भी नहीं हैं
मांगते ये मेरी खुशियां
देते ये कुछ भी नहीं है
आज मै शिकवा करूं क्या
अपने उस भगवान से
थक गया हूँ जिन्दगी
मैं तेरे इम्तहान से।
प्यार में धोखा मिला
अपनों से पाई बेरुखी
चैन से रहने की किम्मत
छोड़ दी सारी खुशी।
आज तो मै छला गया हूँ
अपने ही अरमान से
थक गया हूँ जिन्दगी
मैं तेरे इम्तहान से।
आया था जग में अकेला
और अकेला जाऊंगा
जख्म इतने यहाँ मिले जो
कैसे मैं सह पाऊंगा
देखता हूँ जख्म अपने
मैं बड़े ही ध्यान से,
थक गया हूँ जिन्दगी
मैं तेरे इम्तहान से।
………….✍?
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
मुसहरवा (मंशानगर)
प.चम्पारण
बिहार