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19 Mar 2024 · 1 min read

डिजिटल भारत

रिश्ते-समाज से वो
उदासीन हो गया,
इंसान आज कल तो
एक मशीन बन गया।

मां जनम दे मशीन से,
सहे क्यों प्रसव पीड़ा।
बस यहीं से शुरू हुई,
मशीन की क्रीड़ा।

पलना बना मशीन का,
मशीन है वाकर।
खिलौने भी हैं मशीन के,
शिशु मुदित है पाकर।

घर में बने मशीन से,
सुबह शाम तक खाना।
पैदल का न रिवाज अब,
मशीन से है जाना।

पंखे जगह ए सी लगा,
होती न खट्ट पट्ट।
अब तो क्लास में लगे,
डिस्प्ले श्याम पट।

हो नौकरी मशीन से,
मनोरंजन है मशीन।
कवि गोष्ठी की वार्ता,
न नर्तकी हसीन।

सारे संकल्प का बना,
विकल्प मोबाइल।
रोबोट बन गया मनुज,
झूठी है इस्माइल।

हो पार्क मंदिर माल हो,
आफिस हो या हो घर।
मानव मगन है स्वयं में,
दूजों की न खबर।

मोबाइल जबसे ‘इन’ हुआ,
सारे हुए ‘आउट’।
स्टेटस सेल्फी में दिखे,
स्माइल में पाउट।

मोबाइल से सब काम हो,
सन्देश लेन देन।
अप्लाई हो सप्लाई हो,
हो लॉस अथवा गेन।

परिवार में हम दो हैं,
हमारे भी केवल दो।
चाचा बुआ मौसी,
मामा को हुआ ‘गो’।

प्रतिष्ठा पल लगे दाव पर,
हर एक की है शाख।
छोटे बड़े का अदब अब तो
रख गया है ताख।

ठहाके,चुहिलबाजी,गुम,
गुम भीनीं सी हंसी।
न चाहते हुए बने,
सृजन भी एक मशीं।

सतीश सृजन, लखनऊ.

Language: Hindi
385 Views
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