छन-छन के आ रही है जो बर्गे-शजर से धूप
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छन-छन के आ रही है जो बर्गे-शजर से धूप
कम हो गयी है आप ही अपने असर से धूप
कांधे पे लेके बैठा हूँ ग़ुर्बत का आफ़ताब
निकलेगी आज सब्र की मेरे ही घर से धूप
साये तुम्हारे जिस्म के हो जाएंगे बड़े
उतरेगी देखना जो ये दीवारो-दर से धूप
सूरज को मिल गया है जो काली घटा का साथ
ओझल है आज सुब्ह से मेरी नज़र से धूप
पर्दे पड़े हैं सारे दरीचों पे आज फिर
कमरे में आ रही है ये जाने किधर से धूप
आसी बदलने वाला है मौसम का अब मिज़ाज
सर पे चढ़ी हुई है मिरे दोपहर से धूप
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सरफ़राज़ अहमद आसी