ग्रीष्म की तपन
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ग्रीष्म की तपन
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ग्रीष्म तपन भर कोप में, उगल रही अंगार।
कहर ढहाती लू फिरे, पीट रही घर द्वार।।
शुष्क धरा आकुल हुई, पनघट दिखें उदास।
नयन नीर भर खार का, बुझे न जन की प्यास।।
तेवर तीखे सूर्य के, आग तापती धूप।
द्रुम, खेचर दिखते तृषित, शुष्क हुए सरि-कूप।।
छलकें मुक्तक स्वेद के, बैठी छिपकर छाँव।
कृषक जोतता खेत को, फूटे छाले पाँव।।
प्रेमिल आकुल युगल अब, हुए ग्रीष्म से दूर।
ग़ज़लें अधरों पर अटक, रुदन करें भरपूर।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.