ग़ज़ल
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सहमा-सहमा-सा आदमी क्यूँ है ।
रूठी-रूठी-सी ज़िन्दगी क्यूँ है ।
क्यूँ ये सूरज छिपा-छिपा रहता,
चाँद पर आज तीरगी क्यूँ है ।
जो कभी लाजमी नहीं थी, वो
बात फिर आज लाजमी क्यूँ है ।
गर्म लगता है अब तो सावन भी,
बादलों में ये बेरुखी क्यूँ है ।
लड़खड़ाते हैं जाम – से रिश्ते,
जा-ब-जा आज बेख़ुदी क्यूँ है ।
०००००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी ।