“कुछ तो गुना गुना रही हो”
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मन ही मन कुछ तो गुन-गुना रही हो, क्या कोई ख़ास नज़्म लिखी है,
जो पहाड़ों में बैठ ये अस्मां में फैले बादलों को सुना रही हो,
मौसम पहाड़ो का हसीन सा लग रहा है,
जैसे फ़िज़ाओं में कुछ रंग इश्क़ का घुल रहा है,
दूर खड़ा तुम्हें देख रहा हूँ मैं, तुम्हारे मन में बसी उस नज़्म को तुम्हारे हूठों से सुनने को बेसब्र सा हो रहा हूँ मैं,
सुनो तुम्हारे कप-कापते हूठों से अपना नाम सुनने को मचल सा रहा हूँ मैं।❤️
“लोहित टम्टा”