कभी वैरागी ज़हन, हर पड़ाव से विरक्त किया करती है।
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कभी लगता है ये ज़िन्दगी सफर में बीत जाए,
कभी एक घर की तलब सी जगती है।
कभी फिजायें चाहती हैं, स्वछंदता साँसों में घुल जाए,
कभी आस आँगन की, दिल में घर सा करती है।
कभी निर्भीकता कहती है, हर बंधन टूट जाए,
कभी ख्वाहिशें बंधनों की, ये धड़कनें हीं किया करती हैं।
कभी शब्द कहते हैं, बातें मौन में समा जाए,
कभी अनकही बातों को बाँटने की चाहतें सजती हैं।
कभी दर्द कहता है, अश्क़ पलकों में हीं छिप जाए,
कभी सिसकियाँ खुल के रोने की दुआएं करती हैं।
कभी लकीरें चाहती हैं, नसीबों से लड़ती जाएँ,
कभी एकतरफा सौदा, ये किस्मत की आवारगी से करती है।
कभी डरता है दिल कि फिर से टूट ना जाए,
कभी भ्रम बिखरे टुकड़ों के जुड़े होने का ज़हन करती है।
कभी थकान चाहती है, एक पड़ाव कहीं तो मिल जाए,
कभी वैरागी ज़हन, हर पड़ाव से विरक्त किया करती है।