औरत और मां
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औरत और मां
ममता और गृहस्थी को साथ साथ मैं ढोती हूं
डर कर रूकती नहीं , हां मैं औरत होती हूं।
पीछे जो भी छूट गया,उसका रोना क्र्यू रोऊं
मेहनत से घर चलाऊंगी,चादर तान क्यू सोऊं।
लकड़ी इकट्ठा कर ली ,घर जाकर भात बनाउंगी
चिंता की लकीरों को, चेहरे से दूर हटाऊंगी।
जीवन की हर बोझ को ,सहने को सक्षम हूं
माना नहीं कभी मैंने, मैं कभी भी अक्षम हूं
साथी नहीं साथ मेरा,तो क्या हार मैं जाऊगी
छोटे से अपने लाल का,जीवन स्वर्ग बनाउंगी।
बड़ा होकर बेटा मेरा,सुख मुझको देगा जरूर
माना गरीब हुं आज मगर, नहीं हूं मैं मजबूर।
सुरिंदर कौर