एक कमरे की जिन्दगी!!!
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एक कमरे की जिन्दगी!!!
एक कमरे में बसर करती ये जिन्दगी
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
खिलखिलाते से बचपन लिये खिलती
कभी बहकती जवानी लिये जिन्दगी
लङखङाता बुढापा लिये लङखङाती
आती जन्म मरण परण लिये जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
चादर से बङे होते पाँव की सी फैलती
या रिश्तो संग बहती नाव सी जिन्दगी
अनजाने से अनचाहे घाव सी दे जाती
बबूल कभी बरगद के छाँव सी जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
दोनों हाथों को फैला चांद को छू आती
भाई भाई के मन को ना छूती जिन्दगी
कहने को तो हमें समृद्दि आज छू आती
माँ बाप को घर में ना छू पाती जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
अनकही यादों की गलबहियाँ सी हंसती
समय शून्य में अठखेलियों सी जिन्दगी
मुट्ठी में बंद कुछ निशानियों को कसती
दीवार टंगी अपनो की स्मृत्तियाँ जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
खाली कोना बंद दरवाजे चुप सी सन्नाती,
खुली खिङकी से झाँकती आती जिन्दगी!
दरारों की वजह से दीवारों को यूं दरकती
कभी बङी खाइयों को भी पाटती जिन्दगी!
जाने कहां कब क्यूं खत्म होती जिन्दगी!!
——-डा. निशा माथुर/8952874359