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14 Jul 2016 · 1 min read

उधार नही उतरा है—

क़िताबों मे कभी करार नही उतरा है।
जुनूँ था सर पे जो सवार, नही उतरा है।

गज़ल कहकर कभी गुबार भले कम कर लो
अभी तक बनिये का उधार नही उतरा है ।

उठाते हैं वो उंगलिया कि हुये दाना सब,
कसौटी पे बस सुनार नही उतरा है।

उसे निसबत है भूख पेट निवालो से बस,
यहा पर इश्क़ का बुखार नही उतरा है ।

सडक पे शहर की वो नाच लिये क्या दो दिन
बडे कक्का का तो ख़ुमार नही उतरा है ।
—-सुदेश कुमार मेहर

2 Comments · 428 Views
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