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17 Aug 2016 · 1 min read

आदमी

“खुद से है बेखबर होशियार आदमी,
होड़ की दौड़ में है हजार आदमी।
“संग अपने पराये चले हर डगर,
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
महफिलों में कभी तनहा कभी,
ढूंढता ही यूँ रहता करार आदमी।
खुद के ही घर में अपनों से मतभेद कर,
नीव में घर की डाले दरार आदमी।
खुद है मुंशी भले बुरे कर्म का,
फिर खुद से गया हर बार हार आदमी।
दोष देता है तक़दीर को दर्द का,
बस खता पे न करता विचार आदमी।
जिंदगी ये हंसी मात-पिता ने दी,
उन का रहता सदा कर्जदार आदमी।
खिल के फिर मुस्कुराने लगे ये धरा,
बन जो जाये यहाँ सब उदार आदमी।
;रजनी:::

2 Comments · 800 Views
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