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23 Nov 2016 · 1 min read

हो रहा है

गीतिका
*
छलावा भी उसे ही हो रहा है
भरोसे भाग्य के जो सो रहा है
*
बहुत उम्मीद थी जिससे लगाई
क्यों जाता दूर मुझसे वो रहा है
*
सभी दुख सह चुका है दिल जहाँ के
कहाँ कुछ और सहने को रहा है
*
कभी विश्वास के काबिल नहीं वो
बदलता बात अपनी जो रहा है
*
उसी के पाँव में कंटक चुभे हैं
सदा जो अन्य के पथ बो रहा है
*
बदलते दौर में हर आदमी पर
बढ़ा है बोझ जिसको ढो रहा है
*
*************************
-सुरेन्द्रपाल वैद्य

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