मानव जीव
कहा से आया कैसे आया,
यह सोच नही पाता है।
पूरी जीवन सोच-सोच के,
आँसू वह गिराता है।
जब आया वह इस दुनिया में,
चिल्लाया तब कहाँ-कहाँ,
परा जाल जब यह माया का,
धीरे से मुस्काता है।
पूरी जीवन——-।
कैसी है माया की नगरी,
सोच के यह घबराता है।
यहा पे जीव और जीवो का,
आपस में रिस्ता नाता है।
पूरी जीवन——।
आया जब तरूड़ाई तो,
संग में एक नारी आयी है।
छोड़ पुराने रिस्ते को,
एक रिस्ता नया बतायी है।
देख के उसके नखरे तिल्ला,
मन को सब कुछ भाता है।
पूरी जीवन——।
धीरे-धीरे विवश हो गया,
उस माया के फेरे में।
अब ढुढ़ता है उस प्रकाश को,
लुप्त हुआ जो अंधेरे में।
नये रिस्ते से जो श्रृष्ट हुआ,
दोनो दिल से उसका नाता है।
पूरी जीवन——।
भूल गया पीछे की बाते,
आगे कदम बढ़ाया है।
बैमानी सैतानी करके,
बहुतै नाम कमाया है।
निकल गया जब छोड़ के घर को,
मन ही मन पश्चताता है।
पूरी जीवन——।
रचनाकार- विजय कुमार साहनी ।
विधा- कविता